आपकी ज़िम्मेदारी है बीजेपी को हराना जुम्मन मियां 

देश में हर तरफ वादों का पिटारा खुला हुआ है ,नवजवान को नौकरी नहीं भत्ता ,किसान को समर्थन मूल्य नहीं अहसान के 500 रुपए हर महीने ,जवानों को ठेंगा,और मुसलमानों को बीजेपी हराने की ज़िम्मेदारी मिली है ।बाक़ी वादे पूरे हों या न हों लेकिन मुसलमान अपनी ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए हमेशा की तरह कमर कसे खड़ा है।

देश में तरफ गठबंधन हो रहे हैं और सभी मुसलमानों को अपना बंधुआ मजदूर मान कर चल रहे हैं कि यह कहां जाएंगे इन्हे तो वोट देना ही है ,हालात यहां तक। आपहुंचे हैं जिन सियासी पार्टियों वजूद मुस्लिम वोटों पर हैं वह अपने मुस्लिम नेताओं का फोटो भी अपने बैनर पोस्टर पर लगाने से कतरा रही हैं ।इसका सबसे खूबसूरत उदाहरण आजम खान हैं जिन्हे गठबंधन के ऐलान वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस में जगह नहीं मिली क्योंकि अखिलेश मुसलमानों को बंधुआ मानते हैं।वहीं उनकी सोच सही भी है कि अगर कहीं हमसे नाराज़ होता है तो बीएसपी को देता था अब हम दोनों साथ हैं कहां जाएंगे जुम्मन मियां यही हाल बंगाल, बिहार का भी है


ऐसे माहौल में जब कोई भी जाति वोट देने के लिए अपनी शर्त रख रही है ऐसे में देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी अभी भी होशियार होने को तैयार नहीं है और टोपियां हर रैली में नजर आने लगी हैं यानी जो इस्लाम और सियासत को अलग अलग कर मलाई काट रहे थे आज भी सक्रिय हैं और अलग अलग मंचों से अपना हित साध रहे हैं ।
आजादी के बाद से मुसलमानों की किसी भी बड़ी संस्था या संगठन की यह हिम्मत नहीं हुई कि यह कह सके कि वह सिर्फ मजहबी मामलों में ही नहीं बल्कि सियासत में भी मुसलमानों की रहनुमाई करेगी ।ऐसा क्यों हुआ यह ऐसा सवाल है जिसका जवाब देने के लिए मुसलमानों के नामनिहाद रहनुमा तमाम बातें करते नजर आएंगे और अंत में कहते हैं सियासत बहुत गंदी है यहां हमारा कोई काम नहीं है ।


ऐसे में अब इस समाज को खुद समझना होगा कि आखिर यह कौन लोग हैं जो कभी कौम के लिए सियासत नहीं करते लेकिन इनके रूसूख सियासी जमातों में खूब कैसे हैं ? कौम की हालत क्या इस तरह सुधार सकता है कोई ? क्या बिना सियासी भागीदारी के संभव है कि आपको न्याय मिल सके? सवाल यह भी है कि आखिर इन संस्थाओं ने कब मुसलमानों के आरक्षण यानी अनुच्छेद 341 पर लगे प्रतिबंध के खिलाफ आवाज उठाई ?


यानी ज़रूर कुछ न कुछ दाल में काला है यह सही समय है सवाल करने का।
ऐसे में एक संस्था आल इंडिया उलमा व मशाईख बोर्ड पूरे भारत में अकेला संगठन है जिसने हिम्मत दिखाते हुए मुसलमानों की सियासी रहनुमाई और अगुवाई का बेड़ा उठाने की बात कही और खुले तौर पर भागीदारी की मांग कर दी ऐसे में मुसलमानों को बोर्ड के क़दम का साथ देना चाहिए ।बोर्ड के अध्यक्ष सय्यद मोहम्मद अशरफ किछौछवी ने देश की सभी राजनैतिक पार्टियों के अध्यक्षों को इस आशय का ज्ञापन भेजा लेकिन किसी ने जवाब देने की या उसे मंज़ूर करने की बात नहीं की।
बोर्ड ने लखनऊ के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में सामाजिक न्याय सम्मेलन का आयोजन कर अपनी बात रखी और ज्ञापन पढ़ा जिसे लेने स्वयं प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के सरबराह शिवपाल सिंह यादव सम्मेलन में पहुंच गए और बोर्ड की मांगों को मानने की बात कही।

क्योंकि पहली बार किसी मजहबी संगठन ने भागीदारी और सामाजिक न्याय की बात शुरू की है और सक्रिय सियासत के जरिए इसका हल निकालने की हिम्मत दिखाई है ,लेकिन अब मुसलमानों के कथित रहनुमा अपनी अपनी ढपली लेकर निकल पड़े हैं ऐसे में हम सब का कर्तव्य है कि उनसे सवाल पूछे कि अगर आपके कहने पर वोट दिया तो हमे क्या मिलेगा? आप ऊपर से क्या भागीदारी की बात करके आए हैं ?यदि वह बगल झांकते दिखाई दें तो उन्हें नकार कर बोर्ड के साथ सुर में सुर मिलाकर भागीदारी की इस लड़ाई को लड़ने में समाज का फायदा है।
बोर्ड ने मुस्लिम आरक्षण को लेकर जो मुहिम देश की तमाम दरगाहों से छेड़ी है वह भी सराहनीय है अब फैसला करना है कि क्या हमारी ज़िम्मेदारी मात्र बीजेपी हराना है ? या आप भागीदार बनना चाहते हैं।

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