2019 का आगाज़ हो चुका है सभी सियासी जमाते अपने अपने दल बल के साथ अपने वोटरों को लुभाने में जुट गई है।धर्म से लेकर बजट तक हर जगह चुनाव नजर आ रहा है ऐसे में उत्तर प्रदेश की राजनीति को अगर अलग कर दिया जाए तो सब कुछ अधूरा हो जाता है क्योंकि जहां एक ओर यहां लोकसभा की सबसे अधिक सीटें हैं वहीं यहां पर ही अयोध्या भी है और प्रयागराज भी कुंभ का मेला भी यहीं है और यहीं से ट्रिपल तलाक़ की जंग भी यानी इस समय देश की सियासत का हर अहम मुद्दा यहीं है और यहां है जातियों का जाल।
उत्तर प्रदेश बहुत बदल गया है. लेकिन जो चीज नहीं बदली है, उसमें प्रमुख है जाति. वोट व्यक्ति डालता है लेकिन जीत-हार के खेल की चाबी जाति ही है.
जबान पर जन और जेहन में जात. उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव की सियासी बिसात का कुछ ऐसा ही आलम है. हर दल ने मतदाता सूचियों और अपने कार्यकर्ताओं के बल पर लोकसभा सीटों का जातिगत ब्लूप्रिंट तैयार कर लिया है.और सभी लग गए हैं इन्हें साधने में जहां एक ओर समाजवादी पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन कर बताया है कि 21% दलित और 9% यादव के साथ 1.7 प्रतिशत जाट मिलकर 31.7 प्रतिशत का गठबंधन 20%मुसलमानों के मत पाने का सबसे बड़ा अधिकारी है और इस तरह वह बीजेपी को मात दे पाने में सफल है।

वहीं कांग्रेस ने अपने तरकश का सबसे बड़ा तीर चल दिया है प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में उतार कर जिससे कई समीकरण बिगड़ गए हैं ऐसे में छोटे दलों का महत्त्व बहुत बढ़ जाता है जिनका प्रदेश की राजनीति में कोई अधिक हिस्सा तो नहीं लेकिन इनका .5 से लेकर 1% तक वोट ही निर्णायक हों सकता है इसबात की परख बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से बेहतर कोई नहीं जानता यहीं वजह रही कि उनकी चाल 2014 में कामयाब हो गई और अगर इसबार भी बाकी दल इस बात को नहीं समझ सके तो फायदा उन्हें ही होने जा रहा है।
जहां सपा बसपा यह मान बैठे हैं कि वह अजेय हैं और उनके करीबी चाटुकार उन्हें ज़मीनी हकीकत से रूबरू नहीं होने दे रहे हैं जिस तरह दोनों दलों ने गठबंधन किया और सीटों का बंटवारा किया उससे असंतोष की लहर कहीं न कहीं फैली है जो बड़े नुकसान की वजह भी बन सकती है क्योंकि जिस तरह दोनों दलो ने कांग्रेस को आंखे दिखाते हुए गठबंधन से बाहर रखा है और कांग्रेस ने जिस तरह उत्तर प्रदेश के लिए नई रणनीति बनाई है वह यह बताने के लिए काफी है कि गठबंधन अधूरा है।
बीएसपी के खाते में जो 38 सीटें आयी है उनका चयन लगभग हो चुका है पश्चिम उत्तरप्रदेश में जहां बीएसपी 12 सीटों पर लड़ रही है वहीं प्रदेश की शाहजहांपुर, धरौरा,सीतापुर, मिश्रिख,हरदोई,मोहनलालगंज, प्रतापगढ़,अकबरपुर, बांदा,फतेहपुर, अम्बेडकरनगर,श्रावस्ती,डुमरियागंज, संतकबीरगर नगर,बसगांव ,घोसी, मछलीशहर,गाजीपुर,मिर्ज़ापुर, रॉबर्ट्सगंज, देवरिया,सुल्तानपुर,जालौन,कुशीनगर, महराजगंज,और सलेमपुर लोकसभा सीट पर भी वह मैदान में होगी।
प्रदेश के लगभग 13 जिलों में दलितों की संख्या लगभग 25% या कुछ अधिक है वहीं 4 जिलों रायबरेली,सीतापुर,उन्नाव,हरदोई में दलित आबादी 30 प्रतिशत है और कौशांबी में 36% जबकि सोनभद्र में सबसे ज़्यादा दलित प्रतिशत है जोकि 41% होता है।जबकि दलितों की सबसे कम आबादी बाघपत में है जोकि 10%है ।बाकी जगहों पर भी 15से 20%के बीच इनकी आबादी है ।मोहनलालगंज ,मिश्रिख,हरदोई,सीतापुर,बाराबंकी, रायबरेली,उन्नाव, कौशांबी, इलाहाबाद,तथा फूलपुर लोकसभा में पासी अधिक मात्रा में है जोकि कभी किसी एक दल के मतदाता नहीं रहे कभी कांग्रेस के साथ कभी बसपा कभी बीजेपी ऐसे में इन सीटों पर बसपा का पारंपरिक वोटबैंक कमजोर प्रतीत होता है ।
आधिकारिक आंकड़ों की गैर-मौजूदगी में इस ब्लूप्रिंट की वैधानिक कीमत भले ही रद्दी की तौल में हो, लेकिन परिणाम यहीं समीकरण तय करेंगे इसमें से निकले जाति-मंत्र टिकटार्थियों की किस्मत का फैसला करेंगे ऐसी संभावना है।मजे की बात यह है कि फिर भी सूबे के पानी की तासीर कुछ ऐसी कि जाति के सौ तार वाले संतूर को साधने के बावजूद जीत की धुन सुनाई ही पड़ेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है.टिकट में किसकी कितनी हिस्सेदारी होगी यह बात परिणाम पर असर डालेगी ।मुसलमानों में भी भागीदारी की बात तेज़ी से शुरू हो गई है सिर्फ इतना ही नहीं उन्होंने मुखर होकर हराने के लिए वोट करने की बात भी कह दी है जोकि एक अच्छा संकेत माना जा सकता है ।

जाति के ब्लूप्रिंट पर नजर डालें तो प्रदेश में 49 जिले ऐसे हैं, जहां सबसे ज्यादा संख्या दलित मतदाताओं की है. कुछ जिले छोड़ दें तो बाकी जगहों पर दलित दूसरा सबसे बड़ा वोट बैंक है. वहीं 20 जिले ऐसे हैं, जहां मुस्लिम वोटर सबसे ज्यादा हैं और 20 जिलों में वे दूसरा सबसे बड़ा वोट बैंक है.सूबे के सियासी मुस्तकबिल की रेखाएं खींचने वाली तीन और प्रमुख जातियां हैं- यादव, ठाकुर और ब्राह्मण. संख्या के लिहाज से प्रदेश का सबसे बड़ा समुदाय ओबीसी है. हिंदू और मुस्लिम ओबीसी को जोड़ दें तो हर जिले में इनकी संख्या सर्वाधिक है. लेकिन ओबीसी समूह के तौर पर वोट नहीं करते. ओबीसी की सबसे बड़ी जाति यादव है.
प्रदेश के 44 जिलों में यादव जाति के वोटरों की संख्या 8 फीसदी से ऊपर है और इनमें से 9 जिलों में यादवों की हिस्सेदारी 15 फीसदी या इससे ऊपर है. एटा, मैनपुरी और बदायूं (मुसलमानों के बराबर) जिलों में यादव सबसे बड़ा वोट बैंक हैं. अब यादवों के लिए भी विकल्प के तौर पर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया मौजूद है जिसकी अगुवाई शिवपाल सिंह यादव कर रहे हैं और काफी कद्दावर यादव नेता उनके साथ आए हैं जोकि इस वोटबैंक को बांटते दिखाई दे रहे हैं।प्रदेश में इस जबरदस्त मौजूदगी के बावजूद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ऊपरी 10 जिलों में यादवों की संख्या न के बराबर है.पर यहां भी मुसलमान काफी तादाद में मौजूद हैं यह बात बहुत गौर करने की है।।इन इलाकों में जाट और गुर्जरों का अच्छा-खासा वोट बैंक है. जाट मतदाताओं का पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खास असर है. बागपत में तो जाट और गुर्जर मतदाताओं की कुल संख्या 40 फीसदी तक चली जाती है.

वहीं बुंदेलखंड और पूर्वांचल के जिलों में लोध, कुर्मी, पाल और कुशवाहा जैसी जातियां यादवों के बराबर की हैसियत रखती हैं और अक्सर यादवों के असर को न्यूट्रल करने का काम कर देती हैं. इसके अलावा अतिपिछड़ी जातियों की लंबी जमात है जो छिटपुट रूप से अलग-अलग सीटों पर कुर्सी की चाभी अपने हाथ में रखती है.
देखा जाए तो ब्राह्मण संख्या के लिहाज से दलित, मुसलमान और यादवों से कम हैं, लेकिन दलितों की ही तरह उनकी उपस्थिति पूरे प्रदेश में है. 60 जिलों में ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या 2से 4 फीसदी तक है, वहीं 29 जिलों में यह संख्या 6 फीसदी से ऊपर है.
ठाकुर भी पूरे प्रदेश में फैले हैं और उनकी औसत उपस्थिति 3 से 4 फीसदी के बीच रहती है. पूर्वांचल के जिलों में ठाकुर और भूमिहार मतदाताओं की हिस्सेदारी 8 फीसदी के आसपास तक पहुंच जाती है. गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, आजमगढ़, मऊ, बलिया, जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, वाराणसी, मथुरा, आगरा, हरदोई, उन्नाव, रायबरेली, सुल्तानपुर, बांदा, चित्रकूट ऐसे जिले हैं, जहां यादवों के साथ ठाकुर तीसरे सबसे बड़े वोट बैंक के लिए कड़ा संघर्ष करते हैं.इस बार राजा भय्या ने भी अपनी पार्टी बना ली है उनका ठाकुरों में काफी असर है अगर वह भी कांग्रेस गठबंधन का हिस्सा बनते हैं तो बीजेपी से काफी मात्रा में ठाकुर वोट छीन सकते है ।
इन तीन प्रमुख जातियों की तुलना में वैश्य या बनिया समुदाय की आबादी प्रदेश में कम है, लेकिन अपनी आर्थिक ताकत के कारण इनकी दरकार हर पार्टी को रहती है.इनकी संख्या भी लगभग 1.5%है. कुर्मी जाति भी चुनाव में अहम भूमिका निभाएगी. कुर्मी जाति की दमदार मौजूदगी संत कबीर नगर, मिर्जापुर, सोनभद्र, बरेली, उन्नाव, जालौन, फतेहपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, इलाहाबाद, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थ नगर और बस्ती जिलों में देखी जा सकती है. इन 16 जिलों में कुर्र्मी मतदाता 5 से 7 फीसदी के बीच हैं. इनको भी साधना ज़रूरी है ।
कुर्मी के अलावा लोध या लोधी मतदाता भी सूबे में बड़ी ताकत हैं. भाजपा के पास पहले कल्याण सिंह के रूप में बड़ा लोध चेहरा था . रामपुर, ज्योतिबा फुले नगर, बुलंदशहर, अलीगढ़, माहामाया नगर, आगरा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, उन्नाव, शाहजहांपुर, हरदोई, फर्रुखाबाद, इटावा, औरैया, कन्नौज, कानपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर, हमीरपुर और महोबा जिलों में लोध मतदाता 5 से 8 फीसदी तक हैं.
बसपा के साथ रही कुशवाहा जाति भी बाबू सिंह कुशवाहा के जेल जाने के बाद से कहीं न कहीं कसक रखे हुए और बसपा से दूर हुई है इसपर भी नजर है कांग्रेस सहित बीजेपी की, कुशवाहा जाति का फिरोजाबाद, एटा, मैनपुरी, हरदोई, फर्रुखाबाद, इटावा, औरैया, कन्नौज, कानपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर और हमीरपुर जिलों में 5 से 7 फीसदी वोट बैंक है.
जाति का यह जंजाल देखकर लगता है कि कांशीराम के दिनों का बसपाई नारा-जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी, कामयाब होना चाहिए. लेकिन सियासत इतनी आसान कहां होती है मुसलमानों का प्रतिशत अधिक होने के बावजूद भी गठबंधन में उन्हें बंधुआ के तौर पर देखा जाना साफ दर्शाता है कि मजबूरी और डर की राजनीति के बल पर वोट हासिल करने का एक तिकड़म भी चल रहा है जो अभी तक कामयाब भी हुआ है।
जाति की राजनीति की अकादमिक व्याख्या करते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर आनंद कुमार ने कहा, ‘भारत हो या उत्तर प्रदेश, यहां अब भी डोमिनेंट कास्ट डेमाक्रेसी (प्रभु जाति प्रजातंत्र) का ही बोलबाला है. समाज शास्त्र में प्रभु जाति या दबंग जाति उसे कहते हैं जो चार चीजों-संख्या बल, शिक्षा का स्तर, भूस्वामित्व (आर्थिक हैसियत) और राजनीतिक औजार बनाने में सफल रही हो. दलितों के पास पहली और चौथी योग्यता है, लेकिन दूसरी और तीसरी में वे अब भी पीछे हैं.’मुसलमानों का भी यही हाल है.
अगर जनता का नुमाइंदा बनना है तो जाति-समीकरणों की भूल-भुलैया से गुजरना पड़ेगा. लेकिन याद रखिए कि इस समीकरण में हर जाति और जाति के नेता अपना आंकड़ा दोगुना ही पेश करते हैं. जाति के जबानी आंकड़े मान लिए तो प्रदेश की आबादी दोगुनी करनी पड़ेगी, जो भीड़ से पटे सूबे की सेहत के लिए ठीक नहीं है. वैसे सबसे बेहतर तो यही होता कि हर आदमी नागरिक की तरह वोट डालता।
अब सवाल उठता है कि जिन 38 सीटों पर बसपा का दावा है उनमें उसे गठबंधन से क्या लाभ मिल सकता है सिवा इसके कि उसे विश्वास है कि उसे मुसलमानों का वोट मिलेगा जोकि सपा और बसपा में बंटता अब एक जगह जाएगा लेकिन अभी कांग्रेस गठबंधन से बाहर है और उसके पास छोटी पार्टियों को अपने साथ लाने का पूरा मौका है अगर वह यह क़दम उठा लेती है तो कांग्रेस का अपना पारंपरिक वोट 11%के लगभग जो 2014 में मोदी लहर के बावजूद भी 7.5 % उसके साथ था ।
कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में प्रियंका गांधी का रोड शो किया तो कई सुर हिल गए और अलग धुन सुनाई दी ,अभी तक प्रदेश में मृत्य प्राय मानी जा रही कांग्रेस मानो पुनर्जीवन पा गई और भारतीय जनता पार्टी पर भी इसका असर पड़ा उसका डर तब और साफ दिखाई दिया जब 12 फरवरी के सभी प्रमुख अखबारों के मुख्य पृष्ठ को उसने अपने विज्ञापन से पाट दिया ताकि प्रियंका की खबर को तीसरे पेज पर धकेला जा सके।
सोशल मीडिया में भी गठबंधन के सूत्रों के हवाले से खबर चलने लगी कि कांग्रेस को गठबंधन में 14 सीटें देने को सपा बसपा राज़ी है लेकिन जब बात नहीं बनी तो प्रदेश की सड़कों पर समाजवादी सेना को उतार दिया गया यह सब प्रियंका के असर को कम करने का खेल साफ दिखता है ।प्रियंका गांधी के आने तथा सरकार के प्रति असंतोष के कारण जो बदलाव दिखा है उससे कांग्रेस का वोट प्रतिशत लगभग 15% पहुंचने की संभावना है ऐसे में यदि छोटे दल जोकि किसी न किसी जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं उनसे यदि कांग्रेस गठबंधन कर लेती है तो उनका संयुक्त 5% वोट इसमें मिल कर 20%पहुंचता है जब कांग्रेस स्वयं 20% पर खड़ी होगी तो मुसलमान जोकि मायावती पर भरोसा नहीं कर पा रहा है कांग्रेस की तरफ सोच सकता है और जातीय समीकरण गठबंधन में बसपा को नुकसान की ओर धकेल सकते हैं ।सपा को भी विचार करना चाहिए कि यदि शिवपाल को कांग्रेस का साथ मिलता है तो यादव वोट बैंक उनकी तरफ खिसक सकता है और गठबंधन कमजोर पड़ सकता है।लेकिन अगर कांग्रेस अकेली मैदान में उतरती है तो बीजेपी को सीधा फायदा होना तय है क्योंकि सपा बसपा को ही कांग्रेस नुकसान पहुंचाएगी और उसका वोट प्रतिशत जितना बढ़ेगा बीजेपी को उतना अधिक फायदा होगा क्योंकि बसपा और सपा में ही कांग्रेस से हटा हुआ वर्ग है जिसकी वापसी जहां कांग्रेस को सीटें नहीं दिला सकती वहीं गठबंधन को भी नहीं जीतने देगी ऐसे संभावना प्रबल है जिसका साफ मतलब बीजेपी को खुला फायदा है लेकिन अगर कांग्रेस दिल बड़ा करती है और छोटे क्षेत्रीय दलों के साथ मैदान में आती है तो उत्तरप्रदेश बीजेपी के लिए बहुत मुश्किल खड़ी कर सकता है और उसे शिखर से उतार सकता है। हालांकि सब संभावनाएं हैं निर्णय मतदाता को स्वयं करना है।

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