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आप के ज़हन में यह सवाल आया होगा आखिर यह क्या बेतुकी और बेवक्त की शहनाई मैं बजाने बैठ गया लेकिन जनाब मैं यूंही इस मुद्दे पर आपसे बात नहीं कर रहा हूं इसके पीछे बड़ी वजह है जिसे अगर अभी भी हमने नहीं समझा तो तरक्की की कोई भी बात हमारे किसी काम की नहीं है।
आप और हम सब इस हकीकत से बखूबी वाकिफ हैं कि किस तरह हमारे समाज में रईसों ने मुजरे का शौक पाला और पूरी पूरी रियासते इस शौक की भेंट चढ़ गई जमीदारों के घरों में फाके की नौबते आई लेकिन हमने इससे कोई सबक हासिल नहीं किया चूंकि देश की आजादी के बाद मुसलमानों के हालात तेजी से और खराब हुए लिहाज़ा धीरे धीरे मुजरे का शौक काफी हद तक जाता रहा लेकिन उसकी जगह उससे भी ज्यादा बुरी लत ने लेली

जी यह लत थी मुशायरे की, शुरुवात में तो ये अदब के हिफाज़त की मुहिम के तौर पर रही हालांकि इसके प्रारंभिक काल में इसका काफी असर भी देखने को मिला यहां एक बात ध्यान रखिएगा मैं शायरी की बात नहीं कर रहा बल्कि मुशायरों की बात कर रहा हूं क्योंकि उर्दू शायरी ने जंगे आज़ादी में अपना अहम किरदार निभाया है अल्लामा से लेकर हसरत तक सभी ने जहां समाज को अपनी शायरी से झिंझोड़ने का काम किया वहीं लोगों में आज़ादी की अलख जगाई लेकिन जैसे जैसे वक्त बीतता गया और आज़ाद भारत ने अपनी रफ्तार पकड़ी तो उर्दू शायरी का इस्तेमाल सियासत में शुरू हुआ नेताओं की तकरीरे बिना इसके अधूरी महसूस होने लगी और फिर बढ़ते बढ़ते यह इस मकाम तक पहुंची जहां सिर्फ मुसलमानों के जलसों में शायरी रह गई उनकी तरक्की की बाते बंद हो गई।

यहीं से एक ऐसे दौर का आगाज़ हुआ जिसमें सरकारी मदद के नाम पर मुस्लिम महल्लात में मुशायरा किया जाने लगा कभी जश्ने आज़ादी पर कभी ईद मिलन या होली मिलन के नाम पर यानी तरह तरह के बहाने बना कर मुसलमानों के बीच जाने का यह सबसे बेहतरीन साधन बन गया जब इलेक्शन आते उससे पहले इन मुशायरों का इंतजाम मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में होता जहां नेता जी मुख्य अतिथि बनकर पधारते और सारा शायर उनके कसीदे पढ़ता मौजूदा सरकार को कोसता पूरी रात मुसलमान जाग कर यह तमाशा देखते और खाली हाथ घर जाते सरकारों ने भी इसे अपना हथियार बना लिया और मुसलमानों के लिए मुशायरा तय कर दिया जिससे पूरी कौम उर्दू बचाने की लड़ाई जानकर खुश होती रही।

इसी तरह सरकारों ने चंद खनकते सिक्कों पर क़ौम का दर्द गाने वालों को कुछ ओहदे,कुछ इनाम देना भी शुरू कर दिया बकायदा तौर पर यह दर्द के सौदागर या सुखन के ताजिर अलग अलग राजनैतिक दल के हिमायती दिखे आज भी यह सिलसिला जारी है, मुस्लिम समाज अपनी पूरी ताकत और कीमती वक्त दोनो इन मुशायरों पर बर्बाद कर रहा है यह क़ौम के दर्द गाने वाले देखते देखते अमीर हो गए और कौम बद से बद्तर हालात की तरफ बढ़ती जा रही है।
जिन्हें अदब का मुहाफिज़ समझकर पूरी कौम अपनी दौलत ,अपना कीमती वक्त और तवानाई बर्बाद कर रही है दरअसल हकीकत इसके बिल्कुल उलट है अपनी ज़ाती ज़िन्दगी में यह अदब के अलम्बरदार ज्यादातर कितने बड़बोले बदअखलाक हैं इसे देखने के लिए बस मुशायरा खत्म होते ही पैसों की और तरह तरह की मांग करते इन्हें आसानी से देखा जा सकता है।

अब तो इनके घरेलू किस्से भी नेशनल टेलीविजन पर खूब शोहरत पा रहे हैं मुसलमानों की तमाम मांगे सिर्फ रात भर के मुशायरे तक सिमट गई हैं ज़बान बचाने की मुहिम ने अधिकारों की लड़ाई को भी कमज़ोर किया है साथ ही ज़बान को भी बर्बाद किया है उर्दू अखबारात की खराब हालत इसका नमूना है मुसलमान लाखों रुपए खर्च करके रात भर के मुशायरे का आयोजन करते हैं लेकिन वह अपने घर में 60 रुपए महीना खर्च करके उर्दू अखबार नहीं मंगवाते दूसरी तरफ सरकार पर उर्दू के साथ नाइंसाफी का आरोप लगाते हैं।

शायरी यकीनन एक खूबसूरत फन है लेकिन यह रतजगे और लाखों रुपए में कौम का दर्द गाने वाले एक बड़ी बीमारी है अगर जल्द इसके खतरे को नहीं समझा गया और इससे दूरी नहीं बढ़ाई गई तो मुसलमानों को कोई हक नही पहुंचता कि वह सरकार पर अपनी बदहाली का आरोप लगाए क्योंकि यही फरमान अल्लाह का कुरान में है कि अल्लाह उस कौम की हालत नहीं बदलता जो खुद अपने हालात नहीं बदलती (सुरा अल रआद आयत 11)।

दरअसल मुसलमानों में अपने अधिकारों को लेकर जागरूकता नहीं है यही वजह है कि सियासी दल उन्हें अपना बंधुवा मजदूर समझते हैं और कुछ नेता रटे रटाये शेर पड़कर आवाम की तालियां बटोरते हैं और उन्हें खाली हाथ छोड़कर सत्ता की मलाई चाटते हैं फिर जब कहीं मुजफ्फरनगर जैसी घटना होती है तो यह मुस्लिम नेता मुंह में दही जमाकर अपने दल के आदेशों का पालन करते हैं और कुछ लोग इन हादसों को गाने का पैसा वसूलते दिखते हैं।

मुशायरों के नाम पर आवाम को खुश करने के लिए या तो सत्ता को कोसा जाता है या महबूब की जुल्फों में उलझाया जाता है यानी अदब का स्टेज कहीं न कहीं किसी नौटंकी से कम नहीं दिखता।

अब फैसला आपके हाथ है कि आप इसे नकारते हैं या सराहते रहना चाहते क्योंकि भविष्य आपके बच्चों का है उन्हें इस दलदल में छोड़ना है या फिर नई राह की तलाश करनी है अगर आप तैयार है तो इन दर्द गाने वाले गवैय्यों को नकार कर आगे बढिये।
है सुख़न भी अब सामाने तिजारत
शायरी रक्कासा का हुनर हो गई।।
यूनुस मोहानी
8299687452,9305829207
younusmohani@gmail.com

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