दिल्ली विधनसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की प्रचंड जीत ने जहां केंद्र पर सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी के माथे की लकीरों को और गहरा कर दिया है वहीं अन्य दलों को भी सोचने पर विवश कर दिया है कि अब सिर्फ बहकावे से काम नहीं चलने वाला ,जनता अब ज़मीन पर उसके हित वाले काम देखना चाहती है।
यह बात तो सियासत और सियासी दलों की हुईं लेकिन इस जीत ने आंदोलनरत लोगों को भी एक बहुत बड़ा सबक दिया है अगर उसे सही से समझ कर याद कर लिया जाए तो जीत पक्की है क्योंकि अरविंद केजरीवाल यह सही है कि काम की राजनीति करके सत्ता में आए हैं लेकिन यह सिर्फ अर्ध सत्य है इससे अधिक कुछ भी नहीं।
मैं यह बात दावे से कह सकता हूं क्योंकि अगर अरविंद केजरीवाल ने अपनी चुनावी अभियान में सिर्फ एक गलती कर दी होती तो बीजेपी अपने मकसद में कामयाब हो जाती और उसे कोई दिल्ली जीतने से रोक नहीं सकता था लेकिन केजरीवाल और उनकी पार्टी ने वही मौका नहीं दिया जबकि उस गलती को करने के लिए उन्हें बार बार उकसाया गया।
अब आपका दिमाग किसी जासूसी उपन्यास के किरदार जैसा तेज चलने लगा होगा और आप वही आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के टैक्टिकल एलाइंस की तरफ सोचने लगे होंगे जी हां यह भी एक वजह जरूर रही आम आदमी पार्टी की जीत की मगर यह वह सबक नहीं जो आपको मिला है और जिसे आपको आत्मसात करना है।

किसी भी लड़ाई को जीतने के लिए सुव्यवस्थित और संगठित तौर पर काम करना होता है और जब लड़ाई आरएसएस जैसे संगठन से हो तो यह ज़रूरत और बढ़ जाती है क्योंकि आपकी एक गलती आपके ही खिलाफ कैसे हथियार बनती है उसे इस काम में महारत हासिल है। मैं व्यक्तिगत रूप से आरएसएस के अनुशासन से बहुत प्रभावित हूं और यह मानता हूं कि आज जिस तरह उन्होंने पूरे देश को अपने शिकंजे में लिया है वह यूंही नहीं हुआ उसके लिए लाखों लोगों ने दिन रात बिना थके निस्वार्थ और समर्पण की भावना के साथ काम किया है,और वह लक्ष्य हासिल करने के बाद भी रुके नहीं बल्कि सफलता के शिखर पर बने रहने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं।
एक तरफ इतना बड़ा संगठन है जिसके पास अब सत्ता की भी पूरी ताकत है सरकारी मशीनरी भी जिसके साथ है,और मेन स्ट्रीम मीडिया से लेकर प्रचार प्रसार के अधिकतर साधनों पर उसका कब्ज़ा है अब इस विचारधारा को परास्त करने के लिए आंदोलनकारियों के पास क्या है ? सिवा जोश और जज्बे से क्या यह लड़ाई जीती जा सकती है?आप अगर भावनाओं में बहे बिना जवाब देंगे तो जवाब होगा बहुत मुश्किल है।तो फिर आपके पास इससे पार पाने के क्या तरीके है? जवाब वही नकारात्मक होगा कि अभी इस ओर विचार नहीं किया है.

1925 से लगातार मेहनत कर रही एक विचारधारा के मुकाबले कोई नया इतना बड़ा अनुशासित संगठन तैयार करने में तो एक दशक लग जाएगा शायद यह समय भी कम पड़े तो फिर इस नारे का क्या मतलब हम लड़ेंगे हम जीतेंगे ? क्या मात्र सड़क पर बैठकर इंकलाब के नारे लगाने से यह पूरी लड़ाई आप जीत सकते हैं फिर वही टका सा जवाब देकर आप ख़ामोश हो जाएंगे कि नहीं ।
यही सबक हमें दिल्ली की जीत से हासिल करना है कि चक्रव्यूह को कैसे भेदा जाए आखिर वह क्या सूरत है कि हम जीत जाएं? जवाब साफ है दिशा बदल दी जाए और किसी भी सूरत में लड़ाई को सीधा न लड़ा जाए।अगर आप आरएसएस के मुकाबले खड़े होंगे तो हार निश्चित है तो आखिर क्या ज़रूरत है कि हम आरएसएस के खिलाफ सीधे लड़े ।हमें अपने इतिहास पर गौर करना होगा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को समझना होगा वहां ईस्ट इण्डिया कम्पनी के जरिए सत्ता हासिल की गई यहां भी खेल यही है पहले पूंजीपतियों ने सरकार बनाई और अब जिस तरह निजीकरण का खेल चल रहा है उसे आप देख रहे हैं।

पूरे देश में लोग परेशान हैं ,बेरोजगारी चरम पर है कारोबार डूब रहे हैं लोग हताश है लेकिन पूरी सरकारी मशीनरी ध्यान बांटने में लगी है जहां लोग अपनी आवाज़ उठाना चाहते हैं वहां सरकारी तंत्र उन्हें कुचल दे रहा है और लोगों को ऐसे धर्म और जाति के रूप में बांटा गया है कि सब एक साथ नहीं आ सकते और यही उनका हथियार है,अब उनके इस हथियार की काट क्या है? क्या इस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए?
दिल्ली चुनाव इसी सबक को दे गया कि इन्हें सिर्फ तभी मात दी जा सकती है जब इनसे सीधा न टकराया जाए।
अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी ने अपने पूरे चुनावी अभियान में और उससे 1 महीना पहले से बीजेपी आरएसएस पर कोई हमला नहीं किया,उन्होंने अपने पूरे चुनावी सफर में मोदी और शाह पर कोई व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं की हालांकि उनको लगातार उकसाया गया कि वह प्रधानमंत्री के खिलाफ कुछ बोल दें और उनके ताकतवर विपक्ष को मौका मिल जाए ,लेकिन एक सोची समझी रणनीति के आधार पर ऐसा नहीं होने दिया गया नतीजा यह हुआ कि उधर से उछाले गए सभी सवाल सभी आरोप उनके लिए ही घातक बनते गए।
केजरीवाल को आतंकी कहने पर सवाल यह उठा कि क्या गरीबों के बच्चों के लिए स्कूल बनवाना आतंकवाद है? इसी तरह बिना जवाब दिए अपनी बात लगातार कहने से जीत मिल गई।यानी यह सबक मिला कि किसी भी आंदोलन में मोदी और शाह का नाम भी न लिया जाए ,उनके संबंध में कुछ भी न कहा जाए।
आरएसएस के खिलाफ न बोला जाए बल्कि सिर्फ अपनी बात रखी जाए बिना किसी का विरोध किए क्योंकि जैसे ही विरोध होता है भ्रामक प्रचार वाली मशीनरी अपने काम पर लग जाती है और आपको राष्ट्रद्रोही करार देकर लोगों को भड़काती है इससे बचना होगा।राष्ट्रीय स्तर पर एक विचार मंच बना कर सभी को उसकी सुझाई गई रणनीति पर अमल करना होगा,अनुशासित रहना होगा और किसी भी तरह से आंदोलन का चेहरा धार्मिक नहीं बनने देना होगा।राष्ट्रीय प्रतीकों को आधार बनाना होगा और लड़ाई की दिशा बदलनी होगी हमें सरकार के खिलाफ नहीं सरकार के मालिक बने बैठे पूंजीपतियों के खिलाफ आंदोलन खड़ा करना होगा।
बीएसएनएल , गेल, ओएनजीसी,रेलवे , एलआईसी,को बचाने का अभियान चलाना होगा आंदोलन देश की संपत्तियों को बचाने के लिए होना चाहिए ,रोजगार के लिए होना चाहिए इससे टकराव और बिखराव खुद बखुद समाप्त हो जायेगा और लड़ाई आसान होगी ,संगठन और सरकार के बजाए पूंजीवाद के खिलाफ खड़ा होना होगा इस तरह सीधे टकराव से बचा जा सकता है क्योंकि पूंजीपतियों का साथ देने का प्रयास अगर सरकार करेगी तो उसकी असलियत जनता के सामने आएगी,और अगर नहीं करती है तो पूंजीपति दबाव बनायेंगे कि इस बवाल को जल्दी खतम किया जाए उन्हें नुक़सान हो रहा है।

इस प्रकार हम लड़ाई को आसान बना सकते हैं और जीतने की दिशा में जा सकते हैं लेकिन हमें इस जीत से सबक लेना होगा कि अब आरएसएस ,मोदी और शाह को नहीं जानते न उनकी बात का जवाब देना है न उनकी बात करनी है हमें अपनी लड़ाई मुद्दे पर केन्द्रित करनी होगी उसे किसी दल या विचारधारा के विरूद्ध होने से बचाना होगा ।
अगर हमने यह सबक लिया तो सुबह दूर नहीं वरना रात बहुत लंबी भी हो सकती है।
यूनुस मोहानी
8299687452,9305829207
younusmohani@gmail.com

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