मेरी हाथ लकीरें उछलीं, हल की मूंठ कुदाली में।
माथे ठहर पसीना महका, फसलों की खुशहाली में।
पाँत गडैयें हाँकी बखरीं, नींदी खूब कतारें भी।
खुशियाँ मेढ़ों-मेढ़ बिछी थीं, सावन और दिवाली में।
मुझे पता है कर्जा,बट्टा,ब्याज,उधारी,किश्तों का।
चैत हमारा रहा बादशाह,माघ रहा कंगाली में।
हरिया, चिरिया चोर उचक्के,हम थे पहरेदार खड़े।
जाने कितने मनमोती थे,उस गेंहूँ की बाली में।
हँसिया,खुरपी,टंगिया टांगे,गाड़ी के हिचकौले थें,
लिए पगैया और परेना,निश्छलता थी गाली में।
संझा,भोर,सुहानी रातें,जलती धूप दोपहरी की,
पछुआ व पुरवाई बसती,थीं अम्बुआ की डाली में।
छप्पर,छानी गाय रंभाती,हुंकारें थी बैलों की।
अलसाई सी खड़ी ऊँघती,भूरी भैंस जुगाली में।
ढेले पत्थर के आसन पर,मस्त मलंग दिवस थे वो,
बिना छना था नहर का पानी,चटनी रोटी थाली में।
इच्छाओं के पैर बंधे थे,उम्मीदें खलिहानों में,
सपनों का अम्बार लगा था,खीसे की बदहाली में।
अब टेबल है कुर्सी फिल्टर ,दरी गलीचे कमरों में,
एसी कूलर जड़े हुए हैं, खिड़की वाली जाली में।
दफ्तर के दरवाजे पर, हररोज सलामी मिलती है,
साहब वाला रौब-दाब है,बच्चे हैं खुशहाली में।
बड़ा लॉन है पॉम कैक्टस,गमलों में तरकारी भी,
लेकिन याद निगोड़ी बैठी, खेतों की हरियाली में।
चौ. मदन मोहन समर