प्रतिबंधित है बहुविवाह कहता है क़ुरआन -डा. सूफ़िया अहमद,

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भारतीय मुस्लिम पारिवारिक विधि जो अधिकांशतः असंहिताबद्ध है और वास्तव में कुरान एवं हदीस की विवेकहीन व्याख्या पर आधारित होने के कारण कई जगह विभेदकारी एवं महिला विरुद्ध है I तिहरा तलाक़, बहुविवाह, हलाला, भरणपोषण, बाल विवाह, इत्यादि अनेक मामलो में भारतीय मुस्लिम पारिवारिक विधि महिलाओं के लिए भेदभावपूर्ण एवं कष्टदायक प्रतीत होती है I भारतीय पारिवारिक विधियां विधिक बहुलतावाद के सिद्धांत पर आधारित हैं जो भारत में प्रचलित विभिन्न धर्मों की पारिवारिक विधियों को मान्यता प्रदान करता है I
यह एक सर्वप्रचलित मिथक है कि इस्लाम बहुविवाह को मान्यता प्रदान करता है। हालांकि इस मिथक के पीछे मुस्लिम उलेमाओं द्वारा की गयी कुरान एवं हदीस की विवेकहीन व्याख्या उत्तरदायी है। मुस्लिम विधि के प्राथमिक स्त्रोत के रूप में पवित्र कुरान एवं हदीस अर्थात पैगम्बर साहब कि बातें एवं आचरण को मान्यता प्राप्त है। पवित्र कुरान दुनिया का एकमात्र धार्मिक ग्रंथ है जो कहता है विवाह केवल एक से करें कुरान में बताया गया है कि बहुविवाह से सम्बंधित प्रावधान विधवाओ, अनाथों एवं बेसहारा महिलाओ एवं बच्चो के सामाजिक संरक्षण के लिए बनाये गये है।कुरआन की सूरा निसा में अल्लाह फरमाता है “यदि तुम डरो कि अनाथ (बालिकाओं) के विषय[1] में न्याय नहीं कर सकोगे, तो नारियों में से जो भी तुम्हें भायें, दो से, तीन से, चार तक से विवाह कर लो और यदि डरो कि (उनके बीच) न्याय नहीं कर सकोगे, तो एक ही से करो अथवा जो तुम्हारे स्वामित्व[2] में हो, उसीपर बस करो। ये अधिक समीप है कि अन्याय न करो” (सूरा निसा आयत नंबर 4,) यद्यपि इस आयत को इस आयत की पूरवर्ती आयत संख्या-2 के बिना पढ़ने पर इसका अर्थ समझना थोड़ा मुश्किल है जिसमें कहा गया है “तथा (हे संरक्षको!) अनाथों को उनके धन चुका दो और (उनकी) अच्छी चीज़ से (अपनी) बुरी चीज़ न बदलो और उनके धन, अपने धनों में मिलाकर न खाओ। निःसंदेह ये बहुत बड़ा पाप है”(सूराह निसा आयत 2)
इस सूरा के अवतरित होने के संदर्भ को भी ध्यान रखना आवश्यक है जो सहीह बुखारी के अनुसार यह है “अरब में इस्लाम से पूर्व अनाथ बालिका का संरक्षक यदि उस के खजूर का बाग़ हो, तो उस पर अधिकार रखने के लिये उस से विवाह कर लेता था। जब उस में उसे कोई रूचि नहीं होती थी। इसी पर यह आयत उतरी”। (सह़ीह़ बुख़ारी, ह़दीस संख्याः4573)
कुरान की जिस आयत 4:3 को आधार बनाकर मुस्लिम उलेमा मुस्लिम पुरुष द्वारा किये गए बहुविवाह को वैध बताते हैं उसमे साफ़ साफ़ लिखा है कि पति यदि सभी पत्नियों के साथ समान बर्ताव कर सकता है तभी वह एक से अधिक विवाह कर सकता है, यह शर्त आरोपित करके कुरान स्वयं बहुविवाह पर कठोर प्रतिबन्ध लगाता है क्यूंकि वास्तविकता तो यह है कि एक से अधिक पत्नियों के साथ समान बर्ताव असंभव है यह बात स्पष्ट रूप से कुरान में ही कही गई है क़ुरआन की सुरा निसा की आयत 129 कहती है “और यदि तुम अपनी पत्नियों के बीच न्याय करना चाहो, तो भी ऐसा कदापि नहीं कर[1] सकोगे। अतः एक ही की ओर पूर्णतः झुक[2] न जाओ और (शेष को) बीच में लटकी हुई न छोड़ दो और यदि (अपने व्यवहार में) सुधार[3] रखो और (अल्लाह से) डरते रहो, तो निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील दयावान है”।
हदीसो में भी यह प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति एक से अधिक पत्नियों के मध्य न्याय नहीं कर सकता है तो उन्हें एक से अधिक विवाह नहीं करने चाहिए ।
जिस समय कुरान की यह आयत प्रस्तुत की गयी थी उस समय की राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तिथियां भिन्न थी अनाथ एवं विधवा महिलाओ को संरक्षण प्रदान करने के लिए एक व्यावहारिक समाधान के रूप में बहुविवाह को कुरान में प्रस्तुत किया गया परन्तु आधुनिक सभ्य समाज में बहुविवाह न केवल संविधान द्वारा प्रदत्त समानता एवं मानव गरिमा से जीने के अधिकार का उल्लंघन है बल्कि यह सभ्य समाज की व्यवस्था के भी विपरीत है क्योंकि सामान्य रूप से मुस्लिम पुरुषो द्वारा किया जाने वाला एक से अधिक विवाह न तो विधवा एवं अनाथों के संरक्षण के लिए किया जाता है और न ही ये कुरान द्वारा बताये गए प्रतिबन्ध न्याय की शर्त को पूरा करता है, बल्कि भारतीय मुस्लिम पुरुष दूसरा विवाह केवल अपनी काम वासना कि संतुष्टि,आकर्षण,धन लालसा के लिए करते हैं , इस आधार पर ये कहा जा सकता है कि आज के आधुनिक समाज में मुस्लिम बहुविवाह कुरान के अलोक में एक वैधानिक विवाह नहीं है।अधिकतर मुस्लिम देशों ने बहुविवाह पर कठोर प्रतिबन्ध लगायें हैं या इसे विधि द्वारा विनियमित किया है ताहिर महमूद लिखते हैं, “यह स्पष्ट है कि इस्लाम ने सामान्य नियम के रूप में एक पत्नी विवाह की स्थापना की। परन्तु यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि बहुविवाह के लिए कुरान की अनुमति को पारंपरिक रूप से कानून माना जाता रहा है, इस संबंध में कुरान में बताई गयी इसकी शर्तों और प्रतिबंधों को केवल गैरज़रूरी नैतिकता या सलाह के रूप में देखा जाता है। ”
सर्वोच्च न्यायालय ने 2015 में ही यह स्पष्ट कर दिया कि बहुविवाह इस्लाम का आवश्यक भाग नहीं है जस्टिस टी एस ठाकुर और ए के गोयल की पीठ ने कहा, “ अनुच्छेद 25 (किसी भी धर्म का अभ्यास करने और प्रचार करने का अधिकार) के अंतर्गत धार्मिक विश्वास संरक्षित है, न कि वह प्रथा जो सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य या नैतिकता के विरुद्ध हो सकती है। बहुविवाह इस्लाम धर्म का अभिन्न अंग नहीं है और एकविवाह अनुच्छेद 25 के तहत राज्य की शक्ति के अंतर्गत एक सुधार है। ”
अतः भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त, महिलाओं को समानता एवं मानव गरिमा से जीने के अधिकार को संरक्षित करने के लिए यह अनिवार्य है कि भारतीय मुस्लिम पारिवारिक विधि में प्रदत्त बहुविवाह के प्रावधान को प्रतिबंधित किया जाये इसके लिए विशेष परिस्थिति में ही न्यायालय द्वारा या सक्षम प्राधिकारी द्वारा आज्ञा दी जाये और इसमें पहली पत्नी की सहमति को आधार माना जाये ताकि यह कुरआन पर आधारित मुस्लिम विधि कहला सके अभी जो विधि चलन में है बहुविवाह को लेकर, इसे न्यायलय द्वारा असंवैधानिक घोषित किया जाये एवं दंडनीय अपराध के रूप में मान्यता प्रदान की जाये।
लेखिका – डॉ. सूफ़िया अहमद असिस्टेंट प्रोफेसर, विधि विभाग, बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ.
Email: sufi.bbau@gmail.com

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