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लोकतंत्र में जनता की राय अपने पक्ष में करने के लिए जनता के बीच पैठ बनाना आवश्यक होता है और भारतीय लोकतंत्र में 2009 तक यही होता रहा है लेकिन 2014 चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत में जिस तरह प्रशांत किशोर का नाम सामने आया उसने बहुत कुछ बदला।
लेकिन यह कतई सच नहीं है कि 2014 में बीजेपी की जीत के पीछे प्रशांत की रणनीत ही थी बल्कि उसके पीछे कांग्रेस के प्रति लोगों का गहरा असंतोष,भ्रष्टाचार को लेकर आक्रोश और आरएसएस की संगठन क्षमता थी जिसने यह काम किया।
यही वजह रही कि 2019 में सरकार के प्रति गुस्से के बावजूद और प्रशांत किशोर के बिना भी बीजेपी ने 2014 से बेहतर प्रदर्शन किया जिसने यह बात साफ कर दी कि प्रशांत किशोर में कोई जादू नहीं है बल्कि वह एक ऐसे विक्रेता भर है जो गुणवत्ता वाले माल की ही अच्छी मार्केटिंग कर सकते हैं
अनिवार्य रूप से, किसी भी अच्छे विक्रेता की तरह, प्रशांत किशोर को बेचने के लिए एक ठोस उत्पाद की आवश्यकता है – नरेंद्र मोदी, अमरिंदर सिंह, जगन मोहन रेड्डी। लेकिन वह कमजोर पक्षों को मजबूत नहीं बना सकते है।
किशोर तभी अच्छे परिणाम दे सकते हैं जब वह जीतने की कगार पर खड़े दल के साथ हो ऐसे में वह जीत को और अधिक बड़ी बना सकते हैं और उसका सेहरा अपने सर बंधवाने में वह माहिर है। उदाहरण के लिए, जब राहुल गांधी ने मतदाताओं को समझाने और उन्हें एक ब्रांड बनाने के लिए कहा, तो वे बस नहीं कर सके।

अब, 2021 के राज्य विधानसभा चुनावों में मदद के लिए प्रशांत किशोर को बंगाल में ममता बनर्जी ने चुना है।
जबकि अखिलेश यादव का काम बोलता है ,तेजस्वी यादव का तेज़ रफ़्तार वाला काम जनता देख चुकी है बंगाल में भी प्रशांत वैसा ही कुछ कर रहे हैं दरअसल प्रशांत के पास एक फॉर्मूला है सॉफ्ट हिंदुत्व का जिसे वह हर जगह लागू करना चाहते हैं बिना इस बात की पड़ताल के कि जनता का मूड क्या है ।

2017 में अखिलेश यादव और 2020 में तेजस्वी यादव इसी सॉफ्ट हिंदुत्व का शिकार हुए हैं और अखिलेश की छवि सुधर नहीं पा रही है यही प्रशांत किशोर ने बंगाल में अपनाया है जबकि बंगाल में 30% मतदाता मुसलमान है जोकि ममता के साथ लामबंद था और उसका लेफ्ट से मोहभंग हो चुका था और कांग्रेस अपना अस्तित्व तलाश रही है ।
बंगाल में सॉफ्ट हिंदुत्व बनाम हार्ड हिंदुत्व की जंग छिड़ चुकी है जिसमें हिंदुत्ववादी विचार सीधे तौर पर हार्ड हिंदुत्व की ओर ही जायेगा ऐसे में मुसलमान खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं जो अब तक ममता के साथ खड़े हैं लेकिन असहज है ।

ऐसे में अब्बास सिद्दीक़ी जैसी ताकतों के पास पूरा मौका है कि उनके अंदर के गुस्से को जगा दें अगर वह इसमें कामयाब होते हैं तो ममता के लिए खतरा होगा क्योंकि ममता सत्ता में हिन्दू वोट से नहीं आई ,लेफ्ट से आक्रोश के कारण उनका ग्राफ उठा। 2016 में ममता ने 45% वोट प्राप्त किया जबकि लेफ्ट को 27% कांग्रेस को 12% और बीजेपी को 11% वोट मिला और अन्य के खाते में 5 प्रतिशत वोट गया जिसमे स्पष्ट रूप से मुसलमानों का 23% वोट ममता को मिला जो साफ करता है कि ममता का बेस वोट या तो मुसलमान है या धर्मनिरपेक्ष हिन्दू जो बिना इस तरह के प्रचार के भी ममता के साथ जुड़ा हुआ था लेकिन अब इस नेगेटिव प्रचार के बाद इसमें दरार पड़ती दिख रही है।

प्रशांत किशोर की वजह से पार्टी के वरिष्ठ लोगों में भी आक्रोश है और कई बार यह सार्वजानिक रूप से सामने भी आ चुका है।
प्रशांत किशोर ने कई प्रभावशाली परिणाम दिए हैं – 2014 में मोदी से, 2015 में बिहार में महागठबंधन से 2017 में अमरिंदर सिंह और 2019 में जगन रेड्डी लेकिन यह सवाल है जिसे पूछा जाना है कि क्या इन सफलताओं का श्रेय चुनावी रणनीतिकार को दिया जा सकता है,जबकि ऐसे उदाहरण हैं जहां उनका ‘जादू’ काफी काम नहीं आया है क्योंकि वहां जिस पार्टी का वह कैंपेन देख रहे थे जनता उसके साथ नहीं थी।
मोदी ने 2014 में एक व्यापक और सुनियोजित अभियान चलाया, जब मतदाता बदलाव के लिए बेताब था और सत्तारूढ़ कांग्रेस भ्रष्टाचार के आरोपों से निपट रही थी। किशोर ने भी कड़ी मेहनत की, और मोदी चुनाव जीत गए
लेकिन क्या मोदी ने 2019 चुनाव को प्रशांत किशोर के बिना नहीं जीता ? अगले कुछ वर्षों में भाजपा का प्रदर्शन इसका जवाब है। पार्टी ने किशोर के बिना कई कठिन राज्यों – उत्तर प्रदेश, असम, त्रिपुरा – को जीत लिया। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी ने पांच साल की विसंगति के बोझ के बावजूद 2019 के लोकसभा चुनावों को और भी बड़े अंतर से जीत लिया।
2017 के उत्तर प्रदेश चुनावों में, न केवल भाजपा किशोर के बिना जीती, बल्कि वास्तव में उसके खिलाफ जीत हासिल की। कांग्रेस के प्रचार के लिए चुनावी रणनीतिकार आया, उसने एक के बाद एक विनाशकारी फैसले किए – शीला दीक्षित को सीएम चेहरा घोषित करने मुसलमानों के नाम और चेहरों को दूर रखने तक और नतीजों ने कांग्रेस पार्टी को बहुत पीछे छोड़ दिया।
बिहार में जब महागठबंधन जीता तो उसके लिए नीतीश लालू को गतबंधन ज़िम्मेदार था न कि किसी रणनीतिकार की रणनीति इसी तरह अमरिंदर सिंह की पंजाब में वापसी और जगन रेड्डी की जीत का मामला है ,प्रशांत बस वहीं कामयाब हुए जहां पार्टी की और उसके नेता की छवि पहले से ही जनता के बीच में मजबूत थी और जहां उनकी रणनीति को आखरी मानने की भूल नहीं की गई और पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं पर अधिक विश्वास दिखाया।
बंगाल में जिस तरह पार्टी कार्यकर्ताओं में पीके को लेकर असंतोष है वह टीएमसी के लिए घातक है क्योंकि शीर्ष से लेकर नीचे तक सिर्फ प्रशांत किशोर की ही सुनी जा रही है और पार्टी के बड़े नेता भी उसके आदेशों को मानने के लिए बाध्य है ।

ममता के पोस्टर में जिस तरह पूजा की थाल का इस्तेमाल किया गया है उससे जो संदेश गया है वह भारतीय जनता पार्टी को ही मजबूत करने वाला है क्योंकि ममता का वोटर वह नहीं है जो इन प्रतीकों से जुड़ता है अब ममता ने जो हिंदुत्व का चोला पहन लिया है और खास तौर से उर्दू भाषी लोगों से किनारा किया है जिसका उदाहरण किसी एक भी उर्दू भाषीय को टिकट न देना है जिससे उनमें कड़ा रोष है अब देखना यह है कि यदि मुसलमान वोट बटा तो प्रशांत किशोर इसकी भरपाई कहां से करेंगे।
क्योंकि जब भी सॉफ्ट हिन्नदुत्व के सामने हार्ड हिंदुत्व की राजनीत होगी तो हिंदुत्व के समर्थक हार्ड हिंदुत्व का चुनाव करेंगे और सॉफ्ट हिंदुत्व की हार तय होगी खास तौर से बंगाल जैसे राज्य में यह बहुत घातक होगा।

मुसलमानों की जिस तरह अनदेखी प्रशांत किशोर की रणनीत में यह समझकर की जा रही है कि मुसलमान कहां जाएंगे इनकी मजबूरी है तो इन्हें समझना चाहिए कि मुसलमानों के पास विकल्प मौजूद है और यदि उसने उसे चुना तो नुकसान तय है बाद में सिर्फ पछतावा ही बचना है क्योंकि सांप्रदायिक ताकतों को तभी हराया जा सकता है जब वास्तविक धर्मनिरपेक्ष छवि के साथ उनसे टकराया जाए सॉफ्ट हिंदुत्व की बात उन्हीं के एजेंडे को आगे बढ़ाने वाली है।
हालांकि, इस चुनावी रणनीतिकार ने खुद को एक अपवाद बना लिया है। इसलिए, किशोर राहुल की कांग्रेस के खिलाफ मोदी के साथ खड़ा है, लेकिन फिर यूपी में मोदी के खिलाफ राहुल की कांग्रेस के साथ खड़ा है। वह पंजाब में आम आदमी पार्टी के खिलाफ कांग्रेस के अमरिंदर सिंह के लिए लड़ते हैं, लेकिन कुछ साल बाद, दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ AAP को लड़ने में मदद करते हैं। अधिक मज़ाकिया तौर पर, वह आधिकारिक तौर पर जेडी (यू) में शामिल होकर एक राजनेता बन जाता है, लेकिन एनडीए खेमे के प्रतिद्वंद्वी दलों को सलाह देना जारी रखता है जैसे – तृणमूल कांग्रेस, वाईएसआर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी।
बेशक, किशोर यह भी जानते हैं कि मीडिया से कैसे निपटा जाए, कैसे इसके माध्यम से अपने संदेश का प्रसार करें और सबसे महत्वपूर्ण रूप से, मार्केट गिरोह’ को अपने पक्ष में रखें। उसने खुद को एक प्रीमियम ब्रांड के रूप में डिजाइन करते हुए भी ‘पीछे-पीछे होने’ का ढोंग रचा रखा है।
यही वजह है कि उनकी कामयाबी का चर्चा तो होता है उनकी असफलता को गिना नहीं जाता जोकि अधिक मानाखेज़ है प्रशांत ने अभिषेक को जिस तरह से अपने विश्वास में लिया है और पूरे संगठन की कमान संभाल ली है वह ममता को सत्ता से दूर खड़ा कर सकती है अभी बंगाल में जो स्तिथि बन रही है और मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर जिस तरह का माहौल पनप रहा है इसे यदि ममता ने नहीं समझा तो हाल वैसा ही होगा जैसा जादू का खेल दिखाने वाला टायर को सांप बनाने का दावा करता है और अंत में अपने पत्थर बेंच कर चला जाता है।

यूनुस मोहानी
8299687452,9605829207
younusmohani@gmail.com

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