देश में किसान आंदोलन कर रहे हैं ,वही जिनका पसीना जब माटी में मिलता है तो आपकी थाली में फूली हुई रोटी होती है,वह किसान जो जीतोड़ मेहनत कर धरती का सीना चीर देता है और उसमें से उगतें है फल ,सब्जियां,गल्ला,साहिब आप पूछते है कि यह अपने खेत छोड़ कर यहां सड़कों पर क्या कर रहे हैं ?

वैसे आपका सवाल जायज़ है क्योंकि आपको तो सिर्फ अपनी आराम से मतलब है तो सुनिए यह मेहनतकशों की टोली यूंही सड़कों पर नहीं आ डटी है ,जिसे आप सिर्फ किसानों की समस्या समझ रहे हैं उसमें आप भी शामिल हैं जनाब,चौंकिए नहीं वैसे आपने तो अपने आप को इसी तौर तरीके में ढाल लिया है कि आपको अपनी समस्या अब आपके बड़प्पन का प्रदर्शन लगने लगा है तभी तो शॉपिंग मॉल से सब्जी खरीदने लगे हैं आप ,आखिर वहां तय दाम होते हैं और आपके पास कोई मोल भाव का मौका नहीं, जी जो अभी तक आप दिखावा कर रहे थे अब सरकार ने आपकी सुविधा के लिए इसे आपकी मजबूरी बना दिया है ,नहीं समझे अभी भी आप न क्योंकि आपको कृषि बिल से क्या मतलब आप तो बाबू साहिब है सुबह 11 बजे बॉस की डांट और शाम 6 बजे डांट आपकी दिनचर्या है आप कुछ और कैसे समझेंगे

अरे हां आपको तो एक आसानी ज़रूर हो जाएगी और आप उसमें ढल जायेंगे कि जो मन में कसक महीने के आखिर में होती थी वह अब इस मजबूरी के चलते खतम होगी क्योंकि आपके पास कोई और अवसर जो नहीं होगा,भला अब आप कब सड़क किनारे खड़े होकर भुना हुआ भुट्टा खाते हैं आपको तो नाश्ते में कार्न और सिनेमा हाल में पॉपकॉर्न अच्छा लगने लगा है,खैर जाने दीजिए यह जो सड़क पर आ बैठें है यह वही हैं जिनसे आपका ख़ून का रिश्ता भी है क्योंकि जब दादा जी या पिताजी खेतों में जीतोड़ मेहनत करते थे तब आप स्कूल , कॉलेज,या यूनिवर्सिटी पहुंचते थे और अब आप इस मिट्टी से दामन झाड़ रहे हैं इस देश में वह लोग बहुत कम ही है जिनका ज़मीन से रिश्ता नहीं है वह आसमानी लोग ही है या जन्मजात शहरी जिन्हें खेत की सोंधी महक का अहसास ही नहीं जो जानते नहीं आलू ज़मीन के नीचे पैदा होता है या पेड़ की डालों पर ,कुछ तो जानते नहीं कि चावल ऐसे नहीं पैदा होता जैसा इनके घर में आता है,लेकिन जब कभी कभार यह किसी दोस्त के साथ गांव पहुंच जाते हैं तो इन्हें दूसरी दुनिया का ही एहसास होता है ,किसान जिस मिट्टी को अपने जख्म पर लगा कर इलाज कर लेता है उससे इनके हाथ और कपड़े मैले हो जाते हैं।

खैर यह तो बात है हमारे समाज और हमारे नफे नुकसान की ज़रा हम नजर तो दौड़ाए कि आखिर इस बिल का इतना विरोध हो क्यों रहा है,किसान क्यों सड़कों पर इतनी ठंडक के बावजूद भी बैठे हैं पुलिस बल प्रयोग कर रही है मगर यह चट्टान से डटे हुए हैं हुज़ूर दरअसल बात यह है जिसे आप सिर्फ नारों में मां कहते हैं उसे यह किसान सच में मां ही मानते है अपनी ज़मीन को वह ऐसे ही किसी के हाथ में जाते हुए नहीं देख सकते क्योंकि बिल में साफ लिखा है कि व्यापारी किसानों से उनकी फसल का एग्रीमेंट करेंगे अब व्यापारी इस फसल के एग्रीमेंट के आधार पर बैंको से ऋण प्राप्त कर लेंगे अगर व्यापारी एग्रीमेंट रद्द कर देगा क्योंकि कानून में व्यापारी ही इसे रद्द कर सकता है किसान को इसका हक़ नहीं है तब ऋण का भुगतान कैसे होगा ऐसे में बैंक किस प्रकार कार्यवाही करेगा यह स्पष्ट नहीं है यदि इस विवाद में किसान की ज़मीन फसती है तो कोई कैसे अपनी मां को संकट में डालने के लिए राज़ी हो सकता है।

जो सबसे बड़े प्रश्न के तौर पर उठाया जा रहा है वह सवाल न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का न होना है सरकार सिर्फ आपात स्तिथियों में ही न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करेगी ऐसे में कुछ दिन तो यह व्यापारी सरकारी मंडियों में निर्धारित दर से ऊपर खरीद करेंगे फिर उनके अप्रासंगिक हो जाने के बाद अपनी मनमानी करेंगे जिसके लिए कोई प्रावधान बिल में नहीं है ऐसा किसानों का मानना है जबकि सरकार इसे किसानों के हित में बता रही है ,वहीं किसानों के पास न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने का भी विकल्प मौजूद नहीं है और ऐसे में वह हर हाल में बड़े उद्योगपतियों का बंधुआ अनचाहे तरीके से हो जाएगा यह सारी शिकायते किसानों की हैं जिसके लिए वह सड़कों पर है ।

हालांकि सरकार कई संशोधन करने को तैयार है लेकिन किसान उससे संतुष्ट नहीं हैं क्योंकि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर लिखित गारंटी की बात कर रही है लेकिन किसान इसे कानून के तौर पर चाहते हैं वहीं किसानों में असंतोष की एक वजह बड़े औधोगिक घरानों का पहले ही भण्डारण गृह बना दिए जाने का मामला है इससे यह संदेश गया है कि अब किसान सिर्फ मेहनत करेगा और मज़े मारेंगे यह मुठ्ठी भर लोग और भुगतेगी भारत की जनता ।

इन कानूनों से सरकार न केवल किसानों के हित का दोहन कर पूंजीपतियों के हित में फैसला ले चुकी है बल्कि पंचायती राज्य व्यवस्था के प्रबंधन ढांचे को कमजोर कर चुकी है. ऐसा आरोप लग रहा है और देश के किसानों का सवाल है कि कृषि स्थानीय विषय है, इसलिए इसका केंद्रीकरण नहीं किया जा सकता है. विकेन्द्रीकृत लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाने के लिए स्थानीय स्वशाषी निकायों के तौर पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज्य व्यवस्था को विकसित किया गया. जिनका उद्देश्य कृषि, कृषि विस्तार, भूमि विकास, ग्रामीण शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे प्रमुख विषयों का प्रबंधन था. तो फिर क्यों इसे केंद्रीयकृत किया जा रहा है?
अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज व आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने के प्रावधान वाले विधेयक (Essential Commodities Amendment Bill) को भी सरकार लाई है. यह बिल जून में लागू किए गए अध्यादेश की जगह लेगा .
इस बिल के लागू होने के बाद अब अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू की स्टॉक लिमिट खत्म हो जाएगी. सरकार का दावा है कि इस फैसले से कृषि सेक्टर में प्राइवेट और विदेशी निवेश को बढ़ावा मिलेगा.
इस संशोधित बिल में बताया गया है कि अनाज, दलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज अब जरूरी सामान नहीं होंगे. इन चीजों के उत्पादन, स्टोरेज, डिस्ट्रीब्यूशन पर सरकारी कंट्रोल खत्म होगा. फूड सप्लाई चेन के आधुनिकीकरण में मदद मिलेगी. उपभोक्ताओं के लिए भी कीमतों में स्थिरता बनी रहेगी. सब्जियों की कीमतें दोगुनी होने पर स्टॉक लिमिट लागू होगी.
यानी अभी भी आप किसानों के सवाल को अगर नहीं समझ सकते तो आपको आलू चिप्स के दाम में मुबारक हो वैसे भी रोजगार जा ही रहे हैं तो सब्जी खरीदने के पैसे आपके पास होंगे या नहीं यह आपको सोचना है क्योंकि यह आपका निजी मामला है उद्योगपति तो बस आपका भला करना चाहते हैं कि आपको पैकेट में बिना मिट्टी लगी सब्जियां मिल सके क्योंकि मिट्टी से हाथ मैले होते हैं ।
किसान और सरकार में जो गतिरोध है अब बिना नाखूनों वाला विपक्ष भी इस आंदोलन से आग तापना चाहता है क्योंकि उसके पास खुद यह लड़ाई लड़ने की न तो ऊर्जा शेष है और न हीं उनके नेतृत्व के पास कोई रणनीति क्योंकि उसकी आदत हर हार के बाद ईवीएम को कोसने की पड़ चुकी है और चुनावों के बहिष्कार की उसमें ताकत नहीं क्योंकि भ्रष्टाचार का मकड़जाल बहुत मजबूत है ऐसे में यह आंदोलन जो तस्वीर दिखा रहा है वह साफ करती है कि न्यू इंडिया में किसका हिस्सा होगा ।

सरकार कह रही है कि संवाद से हल निकलेगा लेकिन खुद प्रधान सेवक ने अभी तक किसानों की समस्या सुनने की पहल नहीं की है इसके उलट उन्हें फायदे समझा रहे हैं कभी गंगा के घाट पर देव दीपावली का मज़ा लेते हुए कभी अपने मन की बात करते हुए इससे भी शंका ही होती है क्योंकि सरकार को ऐसी क्या दिक्कत है कि प्रधानमंत्री गुजरात में जाकर सिख किसानों से बात करते हैं लेकिन दिल्ली चल कर आए किसानों से नहीं और उनके मंत्री इन्हें खालिस्तानी समर्थक ,ढोंगी न जाने क्या क्या कहते हैं सरकार नए संसद भवन का भूमि पूजन करती है लेकिन भारत के लोगों की नहीं सुनती इससे गतिरोध बढ़ रहा है ।

देश के ईमानदार लोगों पर जिस तरह के आरोप लगाए जा रहे हैं वह ओछे हैं और उनको आपका समर्थन कितना उचित है यह भी सोचने का विषय है क्योंकि जब भी संसाधनों पर उनके असल स्वामी का स्वामित्व समाप्त किया जाता है विद्रोह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और सड़कों पर भारत इसी लिए है इसे समझना होगा क्योंकि पुकार माटी की है सुनिए हुज़ूर।
यूनुस मोहानी
9305829207,8299687452
younusmohani@gmail.com

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