………..गया पेड़ पर झूल………….
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पखवाड़े कई चले गए हैं रोटी गले उतारे।
दिन बीते हैं जाने कितने खांसे और डकारे।
हफ्ते बीते जाने कितने आँतों की अंगड़ाई को।
दांतों में तिनके को घूमे मुंह खोले जम्हाई को।
कितने सूरज ऊगे डूबे बिन चूल्हा गरमाए।
उससे भी ज्यादा दिन बीते चक्की घुमा चलाए।ओंठों की पपड़ी को भीगे मानसून कई गुजरे।
उम्मीदों के पाँव थिरकते ज्यों कोठे पर मुजरे।
सरदी गरमी बरसातों ने अपना असर दिखाया।
फटे पेट का हर मौसम ने थिगड़ा नोंच हटाया।
ऊल-जलूल सी साँसे चलती रहीं सीटियाँ मार।
नमक चाटती भूख कमीनी फिर भी है गद्दार।बड़े जतन से पाले करिया-लल्लू खड़े बजार।
सींग हाथ पर रगड़ जताते अंतिम लाड-दुलार।
बकरी बच्चों सहित बेच दी होने क़तल हलाल।
बिकी कटोरी पीतल वाली और पुराना थाल।
चारपाई के चारो पाए बिके कौर की खातिर।
नये तकादे लिए धमकता रोज सवेरा शातिर।रोम-रोम पर वक्त हरामी ने हैं दांत गड़ाए।
बेरहमी से छौंक लगा कर हड्डे तलक गलाए।
नोंच-नोंच कर बोटी सबने घी के भरे कनस्तर।
घोल पसीना मेरा सबने चिकने किए पलस्तर।
उमर समूची आँखों में से रिसती रही है गंगा।
बिना सलाखों पता नहीं क्यों कैदी रहा पतंगा।घड़े-घिनौची में पानी पर आँखों पड़ा अकाल।
लोटा,तवा,चिकोटी,बेलन हो कर पड़े निढाल।
खलिहानों में ढेर लगा है घर के भीतर ठेंगा।
सावन सिसकी भरते बीता बिना बिलाउज लहंगा।
थके हुए पर और थकावट होती नहीं कबूल।
इसीलिए मैं खेत छोड़ कर गया पेड़ पर झूल।
चौ.मदन मोहन समर