2019 आ गया है और आगाज़ होते ही चुनाव शुरू हो गया है ,शोर मचा हुआ है कि चौकीदार चोर है ,इसी शोर के बीच आलोक वर्मा की सी.बी.आई. ऑफिस में वापसी कोर्ट के आदेश के बाद हुई और फिर अचानक हो गई विदाई ,सवर्ण वर्ग को 10% आरक्षण का झुनझुना मिला तो उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अपनी एकता का एलान कर दिया .
जहाँ इस मिलाप से दोनों ही दल अपनी कामयाबी का ख्वाब सजा रहे हैं वहीँ मसला है जुम्मन मियाँ का कि वह ख़ुश हों तो किस बात पर ?क्या इसलिए ख़ुश हो जाएँ कि इस गठबंधन से बीजेपी के सत्ता से बेदखल होने का रास्ता दिख रहा है ,या फिर इस बात पर कि उनका कोई मोल नहीं है ?
बहुजन समाज पार्टी की अपने दलित वोटों जिनकी लगभग तादाद उत्तर प्रदेश में 21% है दावेदारी है उसमे से 11% जाटव वोट तो मजबूती से बहुजन समाज पार्टी के साथ चिपका हुआ है लेकिन बाक़ी का 10% वोट बिखरा हुआ है जो कुछ मात्रा में बीजेपी को जाता है और कुछ हिस्सा कांग्रेस सहित अन्य छोटे दलों में भी जाता है उसमे से जैसे राजभर समाज है ,वाल्मीकि समाज है ,कन्नौजिया ऐसी कई बिरादरियां हैं जो 1% से लेकर 3% तक हैं और जिनके अन्दर एक कुंठा है वह यह है कि आरक्षण का पूरा फायेदा अधिक संख्या वाली दलित बिरादरी तो पा जाती है लेकिन उन्हें उनका हिस्सा नहीं मिल पाता है उसके लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण कि एक मांग चल रही है.यानि इस तरह मायावती के साथ 11% ठोस वोट बैंक नज़र आता है और संभावना है कि बाकि बचे 10% दलित वोटो में भी बड़ा हिस्सा उनके हिस्से में आ सकता है .
इस तरह लगभग 12से 15 फीसदी दलित वोट मायावती के साथ है वहीँ अखिलेश यादव 9 प्रतिशत यादव वोटों के साथ 18% मुस्लिम वोटों पर दावेदारी कर रहे हैं यानि कुल जमा 27% अब इन दोनों दलों के वोट प्रतिशत को अगर इस तरह जोड़ा जाये तो लगभग 38% वोट बनता है और यदि 3%अन्य वोटों को जोड़ दिया जाये तो इस गठबंधन को लगभग 41% वोट मिलता है यह तब होगा जब 18% मुसलमान वोट इस गठबंधन में एकमुश्त जाये .
अब इस समीकरण को पलट कर देखते हैं तो बहुजन समाज पार्टी तो अपने लगभग 15% वोटो को मजबूती से पकड़ कर ख़ड़ी दिखती है लेकिन अखिलेश यादव 9% यादव वोटों को खुद से बांधे रख पायेंगे इसमें शंका है,उसकी मुख्य वजह उनके चाचा शिवपाल सिंह हैं जिनका सम्मान अभी भी है और समाजवादी के कई धुरंधर यादव नेता उनके साथ हैं जो अखिलेश यादव के 9% वोटों को आधा भी कर सकते हैं वैसे भी यादव वोट कुछ मात्रा में भारतीय जनता पार्टी के साथ भी है यदि उसे 1% भी मान लिया जाये तो शेष बचता है 8% उसमे शिवपाल यादव अगर 2 से 3% भी ले जाते हैं तो समाजवादी पार्टी के पास शेष यादव वोट बचता है मात्र 5% यानि माया के 15% और अखिलेश के 5% यानि इन दोनों का अपनी जातियों का वोट इस गठबंधन के पास है 2० प्रतिशत अगर अन्य समाज का 5% और वोट यह पाते हैं तो भी यह सिर्फ 25 प्रतिशत पर ही पहुँचते हैं अभी इसमें मुस्लिम वोट नहीं शामिल है जिसे यह गठबंधन अपना बंधुवा समझ रहा है.
यह बात तो सिर्फ इस सियासी गठजोड़ की है अब कांग्रेस इस गठबंधन से अभी बाहर है ,वह एक राष्ट्रिय पार्टी है उसके स्वाभिमान को ठेस भी पहुँची है कि उसे जगह नहीं मिली वहीँ राहुल गाँधी ने दुबई से आगे की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए अखिलेश और माया का सम्मान करते हुए एलान कर दिया है कि कांग्रेस पूरी ताक़त के साथ उत्तरप्रदेश में चुनाव मैदान में उतरेगी ,कांग्रेस का पारंपरिक वोट प्रदेश में लगभग 10 से 11 प्रतिशत है अगर कांग्रेस शिवपाल सिंह को साथ लेती है तो संघर्ष मोर्चा के बहुत से छोटे दल भी आयेंगे जिनका अपना बहुत बड़ा प्रभाव तो नहीं है लेकिन क्षेत्रवार उनके साथ ०.5 से लेकर 1% तक वोट है जो कांग्रेस को बड़ी ताक़त दे सकते हैं शिवपाल अगर कांग्रेस के साथ जाते हैं तो समाजवादी को ज्यादा नुक्सान होगा क्योंकि अभी भले ही शिवपाल को कमज़ोर आँका जा रहा है लेकिन कांग्रेस से हाथ मिलाते ही उनकी ताक़त कई गुनी बढ़ेगी .
शिवपाल यादव ने अपनी क्षमता का परिचय पहले ही दे दिया है जब इतने अल्प समय में उन्होंने पूरे प्रदेश में सक्रीय संगठन का निर्माण कर डाला और लखनऊ में रैली कर उसका सफल परीक्षण भी कर लिया अगर ऐसा होता है तो यादव वोटों में बराबर का बंटवारा हो सकता है जो अखिलेश के लिए मुश्किलें बढ़ा देगा अगर ऐसा होता है तो इस गठबंधन को बराबरी से आँखे दिखाने के लिए कांग्रेस के पास पूरी ताक़त आ जाएगी और वह भी 20% के आस पास ख़ड़ी होगी साथ ही राजा भय्या ने भी अपना दल बना लिया है और उनके साथ काफी मात्र में क्षत्रिय समाज जुडा हुआ है अगर वह अपने समाज को एकजुट करने में सफल होते है तो लगभग 4 फीसदी क्षत्रिय समाज के वोटों को प्रभावित करेंगे और वह अगर शिवपाल सिंह के साथ आकर कांग्रेस से मिल जाते हैं तो पासा पलट जायेगा यह सब आंकड़ों का खेल किसे बाज़ी जितवायेगा उसका फैसला प्रदेश के मुस्लिम समाज पर है .
अब बात करते हैं मुस्लिम समाज की जो बेगानी शादी में अब्दुल्लाह दीवाने की तरह नाचता फिर रहा है इस बात से अनभिग्य कि इसे क्या मिलेगा ?अभी तक खबर आ रही थी कि प्रोफ़ेसर रामगोपाल संभल से प्रत्याशी होंगे संभल यानि मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र जहाँ से कोई मुसलमान संसद में जा सकता है वहां से रामगोपाल जी दावेदारी करेंगे ऐसे ही कई क्षेत्रों में होगा तो अब क्या इन दलों में बैठे मुस्लिम नेता इस बात के लिए गठबंधन पर दबाव बना पाने की हैसियत में होंगे कि जब हमारा वोट प्रतिशत आप दोनों के जातिगत वोट से ज़्यादा है तो टिकट बंटवारे में हमें हमारा हिस्सा दिया जाये और 76 में से 35 उन सीटों पर हमें टिकेट मिले जहाँ से मुसलमान आराम से जीत सकते हैं यदि 35 नहीं तो 28 सीटों पर तो दावेदारी बनती ही है जिनपर मुस्लिम वोट निर्णायक है यदि ऐसा होता है तो मुसलमानों का शत प्रतिशत इस गठबंधन के साथ जाना चाहिए और अगर ऐसा हो जाता है तो गठबंधन के पास जैसे ही 38% वोट दिखेगा स्वतः ही 5% का इजाफा अन्य वोटों का हो जायेगा और यह आंकड़ा 43 प्रतिशत को छू लेगा और संभावना बनेगी कि 76 में से 70 सीट यह गठबंधन जीत जाये .
लेकिन ऐसा हो पाना संभव नहीं है और जब ऐसा नहीं हो रहा है तो ख़ुश क्यों हैं जुम्मन मियां ?क्योंकि दोनों दल मिलाकर 20 टिकट भी मुसलमानों को देने की स्थिति में नहीं हैं यही वजह है कि जब सवर्ण आरक्षण बिल पास हो रहा था तो किसी भी नाम निहाद मुस्लिम समर्थक दल ने धारा 341 का ज़िक्र भी नहीं किया कि उस पर से भी प्रतिबन्ध हटा दिया जाये और मुसलमानों को भी दलित आरक्षण का फायेदा मिलना शुरू हो जाये .यदि ज़्यादा मुस्लिम गठबंधन से जीत कर संसद पहुँचते हैं तो पार्टियों का शिकंजा कमज़ोर हो सकता है और सामजिक न्याय की लडाई को बल मिल जायेगा.
अब फैसला मुसलमानों को करना है कि वह क्या चाहते हैं ?हिस्सेदारी या चाटुकारिता ?
अगर समाज और देश के लिए कुछ करना है तो विचार करना ज़रूरी है कि इस गठबंधन से आपको क्या मिला जुम्मन भाई !!