बिहार विधानसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है ,किसानों के देशव्यापी आंदोलन और कोरोना महामारी के बीच यह चुनाव बिहारी मतदाताओं की कड़ी परीक्षा के तौर पर है ,क्योंकि बिहार में एक साथ बाढ़ , कोरोना और चुनाव का जो कॉकटेल बना है वह वैसा ही है जैसे नशे में नदी पार करना ,लोग राजनैतिक जाम झूम झूम कर पी रहे हैं जिसका एक नजारा 25 तारीख को पटना की सड़कों पर लट्ठ बजाते राजनैतिक गुंडों के तौर पर देखा गया।
राजनीत का गुंडा गठजोड़ कोई नया नहीं है 80 के दशक की हिंदी फिल्म की तरह का माहौल आज भी ग्रामीण इलाकों में पाया जाता है, खैर इन बातों का जिक्र फिजूल है क्योंकि सभी इस हकीकत से बखूबी वाकिफ हैं तो आईये विचार इस बात पर किया जाये कि बिहार के लोग क्या चुनने जा रहे हैं ,इससे पहले हम कुछ कानूनी तिकड़मबाजी को भी समझ लें तो शायद लोकतंत्र के इस रूप को बेहतर समझ सकेंगे।
भारत का चुनाव आयोग राजनैतिक पार्टियों को मान्यता देता है और चुनाव चिह्न भी आवंटित करता है। चुनाव आयोग को संविधान के आर्टिकल 324, रेप्रजेंटेशन ऑफ द पीपुल ऐक्ट, 1951 और कंडक्ट ऑफ इलेक्शंस रूल्स, 1961 के माध्यम से शक्ति प्रदान की गई है। इन शक्तियों का इस्तेमाल करके चुनाव आयोग ने चुनाव चिह्न (आरक्षण एवं आवंटन) आदेश, 1968 जारी किया था। देश के अंदर राजनैतिक पार्टियों और उम्मीदवारों को चुनाव चिह्न इसी के तहत आवंटित किया जाता है।भारत निर्वाचन आयोग केंद्रीय और राज्य स्तरीय मान्यताप्राप्त दलों को निर्वाचन प्रतीक आरक्षण और आवंटन आदेश 1968 के अनुसार स्थायी चुनाव चिन्ह आवंटित करता है,और यहीं से शुरू होती है निशान की राजनीति जिससे व्यक्ति बौना हो जाता है क्योंकि मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दलों को स्थाई चुनव चिन्ह सभी राज्यों के लिए एक ही प्राप्त है जबकि मान्यता प्राप्त क्षेत्रीय दलों को भी उनके राज्यों में स्थाई चुनाव चिन्ह मिला हुआ है जबकि निर्वाचन नियमावली 1961 के नियम 5 और 10 के अनुसार चुनाव चिन्ह चुनाव घोषित होने के बाद ही निर्वाचन अधिकारी द्वारा दिये जाने चाहिए जबकि चुनाव आयोग कुछ दलों को स्थायी रूप से चुनाव चिन्ह दे देता है इससे होता यह है कि यदि कोई व्यक्ति निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव में जाता है तो उसे लोकसभा या विधानसभा के इतने बड़े निर्वाचन क्षेत्र में अपने चुनाव चिन्ह को बताने के लिए मात्र 15 दिन का ही अवसर मिलता है जबकि दूसरी तरफ मान्यता प्राप्त दलों को पूरे 5 वर्ष तक ,जो सीधे तौर पर गैर बराबरी की बात है।
इस नियम के चलते ईमानदार लोगों का चुनाव मैदान में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर उतरना तो आसान है लेकिन जीत सुनिश्चित करना बहुत मुश्किल कर देता है,और हमारे पास बचता है भ्रष्टतम में से भ्रष्ट चुनने का विकल्प,कहीं न कहीं भारतीय राजनीत में शुचिता की कमी के लिए यह ज़िम्मेदार भी है ,क्योंकि पैसे वाले या बाहुबली अपराधी अपने रूसूख का इस्तेमाल कर मान्यता प्राप्त दलों का टिकेट प्राप्त कर लेते हैं और आसानी से जीत कर जनप्रतिनिधि बन जाते हैं और ईमानदार लोग सिस्टम से सर टकराकर वापिस घर बैठ जाते हैं।
यह बात तो थी कानून की आइये कानून जब बदलेगा तब तक जो है उसके साथ ही राजनैतिक समझ की परीक्षा देनी होगी, आखिर अब हम क्या चुनना चाहते हैं ? क्या वास्तव में हम विकास चाहते हैं ? इन सवालों को हमें खुद से बार बार पूछना चाहिये ,क्या राजनैतिक दल किसी को भी उम्मीवार बना कर आपके बीच उतार देंगे और आप मात्र चुनाव चिन्ह देखकर उसे चुन लेंगे ? या फिर व्यक्ति और उसकी पार्टी के सिद्धांतों को परखेंगे ?
पिछली बार बिहार विधानसभा चुनावों में महागठबंधन जिसमें नीतीश कुमार भी शामिल थे विजय हुआ लेकिन कुछ दिनों बाद वह बिखरा और जिन लोगों ने महागठबंधन को बीजेपी के विरोध में वोट दिया था वह ठगे गए, ऐसा सिर्फ बिहार में नहीं हुआ यह हर बार कहीं न कहीं होता रहता है और हमारे द्वारा चुने जाने वाले जनप्रतिनिधि ऐसा खेल खेलते रहे हैं तो क्या हम अपने वोटों की सुरक्षा की गारंटी नहीं मांगेंगे और चिन्ह के लोभ में वोट करेंगे ?
चुनावी समर में वादों कि बौछार होती है और फिर 5 साल बीत जाते हैं और हैं उन वादों के सच होने की बांट जोहते रहते हैं क्या हम अभी भी इस खेल में शामिल होने के लिए अपनी रजामंदी देंगे ? या फिर वादों के जुमलों में बदलने का इंतज़ार करेंगे ? या फिर कुछ नया करने जा रहे हैं इस विधानसभा चुनाव में वैसे इस विधानसभा चुनावों में एक दल ने नई पहल भी की है और ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के समक्ष हलफनामा देकर अपने वादों को पूरा करने की बात की है क्या अन्य दलों से भी ऐसी कोई गारंटी मांगेंगे ?
सवाल यह भी है क्या इस चुनाव में उम्मीदवारों से जनता इस बात का लिखित आश्वासन मांगेगी कि वह जिस दल से चुनाव लडने आये हैं उसमें कम से कम अगले चुनावों तक रहेंगे ?
चुनावी राजनीति का शुद्धिकरण इस चुनावी बेला में निर्वाचन हवन में हमसे चुनाव चिन्हों के मोह की आहुति मांग रहा है शायद इसके बिना हम एक ईमानदार राजनीति की शुरुवात नहीं कर सकते ,बिना गारंटी वोट हमें धोखा खिलाता रहा है और चुनाव चिन्हों के मोह से हमारे मुद्दों पर 5 वर्षों तक चुप्पी साधे रहने वाले हमें अपना बंधुआ मजदूर समझने लगे हैं लिहाज़ा अब बिहार के मतदाताओं के सामने सवाल लाख टके का है कि बिहार निशान चुनेगा या नेता ????????
यूनुस मोहानी
8299687452,9305829207
younusmohani@gmail.com

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