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Reading: अयोध्या फैसला: भारतीय मुसलमानों के लिए मित्रता बढ़ाने का समय
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clicktv.in > Blog > CRITICLES > अयोध्या फैसला: भारतीय मुसलमानों के लिए मित्रता बढ़ाने का समय
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अयोध्या फैसला: भारतीय मुसलमानों के लिए मित्रता बढ़ाने का समय

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Last updated: 2019/11/18 at 8:48 AM
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राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले प्रसिद्ध मुस्लिम संगठनों ने “हर कीमत पर अमन और सद्भाव कायम रखने का इरादा किया था चाहे निर्णय जो भी हो”l मुस्लिम बुद्धिजीवी जिन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों पक्षों को खुश करने के लिए लम्बे समय से चल रहे विवादित मामले में अदालत से बाहर समस्या का हल निकालने का मुतालबा किया था, उन्होंने देश में देर पा अमन कि खातिर यह ज़मीन हिन्दुओं के हवाले करने की अपील की थीl लगभग सभी मुस्लिम संगठनों ने राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवादित भूमि के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन करने का संकल्प लिया थाl लेकिन अब जबकि हिन्दुस्तान की आला अदालत ने हिन्दुओं को वह ज़मीन दे दी है जिस पर बाबरी मस्जिद की इमारत लगभग पांच सदियों से खड़ी थी, तो विभिन्न सुन्नी रहनुमा और उलेमा सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर “सम्मान और असंतोष” के बीच घिरे मालुम पड़ रहे हैंl

उनका कहना है कि हालांकि वह सुप्रीम कोर्ट का सम्मान करते हैं मगर वह ‘असंतोष’ हैं और अब किसी ऐसी अदालत पर भरोसा नहीं कर सकते जो ‘आस्था को मेरिट पर’ तरजीह देता हैl उनमें से कुछ के अनुसार तो अयोध्या का फैसला स्पष्ट ‘अन्याय’ पर आधारित हैl जैसे कि, आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एग्जिक्यूटिव कमेटी के मेम्बर, मौलाना सैयद अतहर अली, मुम्बई के मर्क्जुल मारिफ एजुकेशन और रिसर्च सेंटर के सरबराह मौलाना बुरहानुद्दीन कासमी और इकरा फाउंडेशन के तहत चलने वाले दारुल कज़ा के मेम्बर मौलाना शुऐब कोटी उन मौलवियों में से हैं जो ऐसा दृष्टिकोण रखते हैंl

असल में सुन्नी मुस्लिम रहनुमाओं की एक बड़ी संख्या जिनसे उम्मीद थी कि बड़े दिल से इस फैसले का स्वागत करेंगे चाहे यह उनके हक़ में हो या ना हो लेकिन इसके उलट उन्होंने बाबरी मस्जिद की ज़मीन के नुक्सान पर अपनी नाराज़गी का इज़हार किया हैl उनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो फैसले से पहले यहाँ तक तजवीज़ पेश कर चुके थे कि अगर फैसला उनके हक़ में आता तो वह हिन्दुओं को यह ज़मीन तोहफे के तौर पर देने को राज़ी हो जाएंगे और ऐसा करते समय वह दोसरे पक्ष पर किसी तरह का कोई शर्त भी नहीं रखेंगेl लेकिन मित्रता का यह इशारा जो भारत में हिन्दू मुस्लिम संबंधों का एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता था अब मंदिर के हक़ में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के बाद कहीं खोता दिखाई दे रहा हैl इसका अंदाजा अयोध्या भूमि विवाद केस से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भारत के विभिन्न सुन्नी इस्लामी उलेमा और रहनुमाओं के मिजाज़ से लगाया जा सकता हैl उन्हें इस बात का एहसास है कि उच्च न्यायलय ने उन्हें मायूस किया हैl जैसे—आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) ने स्पष्ट तौर पर इस फैसले को अस्वीकार कर दिया है, हालांकि उन्होंने नज़र ए सानी की दरख्वास्त दाखिल करने का फैसला किया हैl

दोसरी ओर आल इण्डिया मुस्लिम मजलिस ए मुशावरत (ए आई एम एम), मुम्बई में स्थित रज़ा एकेडमी, अंजुमन इस्लाम, जमात ए इस्लामी हिन्द (जे आई एच) के कुछ सदस्यों और हज़रत निजामुद्दीन औलिया दरगाह के कुछ खादिमों ने भारत की कौमी सलामती के मुशीर अजीत डोभाल के आवास पर उन से मुलाक़ात कीl मिस्टर डोभाल, प्रतिष्ठितमुस्लिम रहनुमाओं और विश्व हिन्दू परिषद के सदस्यों की तरफ से एक साझा बयान जारी किया गया, जिस में कहा गया कि “इस बैठक में शिरकत करने वाले इस हकीकत के गवाह हैं कि कुछ आंतरिक और बाहरी देश दुश्मन तत्व हमारे राष्ट्रीय हितों को हानि पहुंचाने के लिए वर्तमान परिस्थिति का नाजायज लाभ उठाने का प्रयास कर सकती हैं”l

यह बिलकुल स्पष्ट तौर पर अंदाज़ा लगाया जा चूका था कि अगर मुस्लिम पक्ष यह मुकदमा जीत लेती तब भी भारतीय समाज में कुछ ऐसे तत्व मौजूद होंगे जो उसे अपने राजनीतिक हितों के लिए प्रयोग करेंगे, और इस तरह साम्प्रदायिक तनाव बढ़ने का कारण बनेंगेl इसलिए इस बैठक में रहनुमाओं ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करने का संकल्प किया और देश के सभी नागरिकों से अपील की कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पालन करें, इस बात पर ज़ोर देते हुए कि “राष्ट्रीय हित दोसरे सभी मामलों पर तरजीह का दर्जा रखता है”l एक तरफ इस बैठक में शामिल होने वाले रहनुमाओं ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कुबूल करने में जिम्मेदारी, संवेदनशीलता और सब्र का प्रदर्शन किया तो दोसरी ओर मुस्लिम संगठन जमियत ए उलेमा ए हिन्द (जे यू एच) ने इस फैसले से असहमति का इज़हार किया और इसे “अन्याय” करार दिया और यह भी कहा कि इस में “ हकीकत और सबूत की खुली तौहीन” थीl इसलिए इस बैठक में शिरकत की दावत कुबूल नहीं कीl यह बात उल्लेखनीय है कि जमीयत ए उलेमा ए हिन्द अमन की दावत देने, सुप्रीम कोर्ट के फैसले का एहतिराम और मुकम्मल सहयोग करने का यकीन दिलाने में आगे आगे थाl जमियत ने “समाज को और अधिक यकीन दिलाने” के लिए केन्द्रीय अर्ध सैनिक बल की तैनाती का मुतालबा भी किया थाl

इस तरह अयोध्या से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भारतीय मुस्लिम नेतृत्व में दो दृष्टिकोण सामने आए हैंl एक नजरिया कहता है सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुर्णतः सम्मान और बिना शर्त सहयोग दिया जाए तो वहीँ दोसरा नजरिया इस फैसले को चैलेन्ज किये बिना असहमति का इज़हार करता हैl

इस दूसरी नज़रिए का धार्मिक दृष्टिकोण यह है कि दरो दिवार एक बार मस्जिद हो गई तो वह हमेशा मस्जिद ही रहती हैl उनका मानना है कि इस्लामी शरीयत के अनुसार केवल दरो दिवार ही नहीं बल्कि ज़मीन भी कयामत तक मस्जिद कहलाएगी जिस पर बाबरी मस्जिद की इमारत स्थापित थीl वह मानते हैं कि वह जगह जहां मस्जिद थी वह विश्वयी सम्मान का हामिल है और हमेशा के लिए धार्मिक पवित्रता का दर्जा रखेगीl लेकिन इस नजरिये के उलेमा यह समझने में असफल है कि एक ढांचा जिस पर विवाद हो वह इस्लामी इबादत के लिए किस तरह मुनासिब हो सकता हैl इसका औचित्य इस्लामी शरीयत की रौशनी में भी नहीं मिलता जिस शरीयत के उद्देश्य की बुनियाद पांच महत्वपूर्ण और नेक उमूर के हुसूल पर आधारित हैं, जिस में सबसे आला महत्व का हामिल जान की हिफाज़त हैl

उल्लेखनीय बात है कि शरीयत ए इस्लामिया में विभिन्न समस्याएं हैं जिनमें जमाने के हालात की रियायत करते हुए परिवर्तन नमूदार होती है और इस तरह सुहुलत व आसानी का दरवाज़ा मुस्लिम उम्मत के लिए हर दौर में खुला रहता हैl अक्सर फुकहा ए किराम के नज़दीक इस सुहुलत और आसानी के बुनयादी कारण हैं: जरुरत, हाजत, हर्ज और तंगी को दूर करना, उर्फ़, मसलिहत, फसाद को दूर करना और उमूम ए बलवाl

सख्त ज़रूरत पड़ने पर कुछ ऐसे मौके हैं जहां जान, माल, अक्ल, नस्ल और दीन की रक्षा के लिए समस्याओं में आसानी और सहूलत की राह निकालने के लिए हराम व हलाल के मसले में सुहुलत की गुंजाइश रहती हैl इन सब मामलों की सुरक्षा ही असल में शरीयत के मकासिद में से हैl इसलिए अगर बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि के समस्या पर सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले की स्थिति में अगर हम यह मान भी लें कि ठीक है मस्जिद की ज़मीन हमेशा मस्जिद ही रहती है तब भी हमें शरई उद्देश्यों पर नज़र करनी पड़ेगी जिनका उद्देश्य दीन, जान, माल, इज्ज़त व आबरू की हिफाज़त, हर्ज और तंगी दूर करना और समाज में अमन व शांति कायम करना हैl इन उद्देश्यों और मकासिद कि रौशनी में अगर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मान लें तो समझ लें कि हम ने शरीयत का उचित खयाल रखाl यह फिकही कायदा भी याद रखना चाहिए कि الضرورات تبیح المحظورات अर्थात ज़रूरतें कुछ निषेधताओं को भी मुबाह (जायज) कर देती हैंl इसका मतलब है कि हमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले को शब्दशः स्वीकार करना चाहिएl हालांकि इस फैसले को कुछ लोग रीजोलुशन मानते हों लेकिन फिर भी यह शरीयत के मकासिद के बिलकुल मुताबिक़ और जिससे भारत के हज़ारों लाखों देशवाशियों की जानों की सुरक्षा होगीl अगर इसे स्वीकार नहीं किया जाए तो तबाही और हज़ारों जानों के नुक्सान होने का खतरा हो सकता है और इस तरह यह मामला शरीयत के मकसद की खिलाफवर्जी का कारण होगाl

Source: http://www.newageislam.com/hindi-section/new-age-islam-special-correspondent/after-the-supreme-court-ayodhya-verdict,-time-for-introspection-and-reconciliation-for-indian-muslims-अयोध्या-पर-सुप्रीम-कोर्ट-का-फैसला–भारतीय-मुसलमानों-के-लिए-आत्मनिरीक्षण-और-मित्रता-का-समय/d/120273

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Editor November 18, 2019 November 18, 2019
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‘ناانصافی’ پر مبنی ہے ۔ مثال کے طور پر ، آل انڈیا پرسنل لاء بورڈ کے ایگزیکٹو کمیٹی کے ممبر ، مولانا سید اطہر علی ، ممبئی کے مرکز المعارف ایجوکیشن اور ریسرچ سنٹر کے سربراہ مولانا برہان الدین قاسمی اور اقراء فاونڈیشن کے تحت چلنے والے دارالقضا کے ممبر مولانا شعیب کوٹی ان مولویوں میں سے ہیں جو ایسا نظریہ رکھتے ہیں ۔ در حقیقت سنی مسلم رہنماؤں کی ایک بڑی تعداد جن سے توقع تھی کہ وہ وسعت قلبی سے اس فیصلے کا خیرمقدم کریں گے خواہ یہ ان کے حق میں ہو یا نہ ہو لیکن اس کے برعکس انہوں نے بابری مسجد کی زمین کے نقصان پر اپنی ناراضگی کا اظہار کیا ہے ۔ ان میں سے کچھ تو ایسے ہیں جو فیصلہ سے قبل یہاں تک تجویز پیش کر چکے تھے کہ اگر فیصلہ ان کے حق میں آتا ہے تو وہ ہندوؤں کویہ زمین بطور تحفہ دینے پر راضی ہوجائیں گے اور ایسا کرتے وقت وہ دوسری فریق پر کسی طرح کی کوئی شرط بھی نہیں رکھیں گے ۔ لیکن خیر سگالی کا یہ اشارہ جو ہندوستان میں ہندو مسلم تعلقات کا ایک اہم موڑ ثابت ہوسکتا تھا اب مندر کے حق میں سپریم کورٹ کے حالیہ فیصلے کے بعد مفقود دکھائی دے رہا ہے ۔ اس کا اندازہ ایودھیا اراضی تنازعہ کیس سے متعلق سپریم کورٹ کے فیصلے کے بعد ہندوستان کے متعدد سنی اسلامی علماء اور رہنماؤں کے مزاج سے لگایا جاسکتا ہے۔ انہیں اس بات کا احساس ہےکہ اعلیٰ ترین عدالت نے انھیں مایوس کیا ہے۔ مثال کے طور پر — آل انڈیا مسلم پرسنل لا بورڈ (AIMPLB) نے واضح طور پر اس فیصلے کو مسترد کردیا ہے ، اگرچہ انہوں نے نظرثانی کی درخواست داخل نہ کرنے کا فیصلہ کیا ہے۔ دوسری طرف آل انڈیا مسلم مجلس مشاورت (اے آئی ایم ایم)، ممبئی میں واقع رضا اکیڈمی ، انجمن اسلام ، جماعت اسلامی ہند (جے آئی ایچ) کے کچھ ممبران اور حضرت نظام الدین اولیا درگاہ کے کچھ خدا م ہندوستان کی قومی سلامتی کے مشیر اجیت ڈوبھال کی رہائش گاہ پر ان سے ملاقات کی۔ مسٹر ڈوبھال ، ممتاز مسلم رہنما اور وشو ہندو پریشد کے ممبران کی طرف سے ایک مشترکہ بیان جاری کیا گیا ، جس میں کہا گیا کہ “اس اجلاس میں شرکت کرنے والے اس حقیقت کے گواہ ہیں کہ کچھ داخلی اور بیرونی ملک دشمن عناصر ہمارے قومی مفاد کو نقصان پہنچانے کے لئے موجودہ صورتحال کا ناجائز فائدہ اٹھانے کی کوشش کرسکتی ہیں’’۔ یہ بالکل واضح ہو چکی تھی کہ اگرچہ مسلم فریق یہ مقدمہ جیت لیتی تب بھی ہندوستانی معاشرے میں کچھ ایسے عناصر موجود ہوں گے جو اسے اپنے سیاسی مفادات کی خاطر استعمال کریں گے ، اور اس طرح فرقہ وارانہ کشیدگی بڑھنے کا باعث بنیں گے۔ لہذا اس میٹینگ میں رہنماؤں نے سپریم کورٹ کے فیصلے کا احترام کرنے کا عزم کیا اور ملک کے تمام باشندوں سے اپیل کی کہ وہ سپریم کورٹ کے فیصلے کی پاسداری کریں ، اور اس بات پر زور دیتے ہوئے کہ “قومی مفاد دیگر تمام امور پر فوقیت کا درجہ رکھتا ہے’’۔ ایک طرف اس میٹینگ میں شریک ہونے والے رہنماؤں نے سپریم کورٹ کے فیصلے کو قبول کرنے میں ذمہ داری ، حساسیت اور تحمل کا مظاہرہ کیا تو دوسری طرف مسلم تنظیم جمعیت علمائے ہند (جے یو ایچ) نے اس فیصلے سے عدم اتفاق کا اظہار کیا اور اسے “ناانصافی” قرار دیا اور یہ بھی کہا کہ اس میں “حقیقت اور ثبوت کی کھلی توہین” تھی۔ لہذا اس میٹینگ میں شرکت کی دعوت قبول نہیں کی۔ یہ بات قابل ذکر ہے کہ جمعیۃ علمائے ہند امن کی دعوت دینے ، سپریم کورٹ کے فیصلے کا احترام اور مکمل تعاون کرنے کی یقین دہانی کرانے میں پیش پیش تھی۔ جمعیۃ نے “کمیونٹی کو مزید یقین دہانی کرانے” کے لئے مرکزی نیم فوجی دستوں کی تعیناتی کا مطالبہ بھی کیا تھا۔ اس طرح ایودھیا سے متعلق سپریم کورٹ کے فیصلے پر ہندوستانی مسلم قیادت میں دو نقطہ نظر سامنے آئے ہیں۔ ایک نظریہ کہتا ہے کہ سپریم کورٹ کے فیصلے کا مکمل احترام اور غیر مشروط تعاون دیا جائے تو وہیں دوسرا نظریہ اس فیصلہ کو چیلنج کئے بغیر عدم اطمینان کا اظہار کرتا ہے۔ مؤخر الذکر کا مذہبی نقطہ نظر یہ ہے کہ درو دیوار ایک مرتبہ مسجد ہو گئی وہ ہمیشہ مسجد ہی رہتی ہے۔ ان کا ماننا ہے کہ اسلامی شریعت کے مطابق صرف در ودیوار ہی نہیں بلکہ زمین بھی تا ابد مسجد کہلائے گی جس پر بابری مسجد کی عمارت قائم تھی ۔ وہ مانتے ہیں کہ وہ جگہ جہاں مسجد تھی وہ آفاقی حرمت کا حامل ہے اور ہمیشہ کے لئے مقدس رہے گی ۔ لیکن اس نظریہ کے علما یہ سمجھنے میں ناکام ہیں کہ ایک ڈھانچہ جس پر تنازع ہو وہ اسلامی عبادت کے لئے کس طرح مناسب ہوسکتا ہے۔ اس کا جواز اسلامی شریعت کی روشنی میں بھی نہیں ملتا جس شریعت کے مقاصد کی بنیاد پانچ اہم اور نیک امور کے حصول پر مبنی ہے ، جس میں سب سے اعلی اہمیت کا حامل جان کا تحفظ ہے۔ قابل ذکر بات ہے کہ شریعت اسلامیہ میں متعدد مسائل ہیں جن میں حالات زمانہ کی رعایت کرتے ہوئے تبدیلی رونما ہوتی ہے اور اس طرح سہولت وآسانی کا دروازہ امت مسلمہ کے لیے ہر دور میں کھلا رہتا ہے۔جمہور فقہائے کرام کے نزدیک ان کے ساب بنیادی اسباب ہیں : ضرورت، حاجت ، دفع حرج ، عرف ، مصلحت ، ازالہ فساد اور عموم بلوی ۔ ضرورت کی صورت میں بعض ایسے مواقع ہیں جہاں جان ، مال ،عقل ، نسل اور دین کے تحفظ کے لیے مسائل میں آسانی اور سہولت کی راہ نکالنے کی گنجائش رہتی ہے۔ان ہی امور کا تحفظ در اصل شریعت کے مقاصد میں سے ہے ۔لہذا اگر بابری مسجد اور رام جنم بھومی کے مسئلہ پر سپریم کورٹ کے حالیہ فیصلے کی صورت میں اگر ہم یہ مان بھی لیں کہ ٹھیک ہے مسجد کی زمین ہمیشہ مسجد ہی رہتی ہے تب بھی ہمیں مقاصد شریعت پر نظر کرنی پڑے گی جن کا مقصد دین ، جان ، مال ، عزت وآبرو کی حفاظت ، دفع حرج اور سماج میں امن وشانتی کا قیام ہے ۔ ان مقاصد کی روشنی میں اگر سپریم کورٹ کے فیصلے کو مان لیں تو سمجھ لیں کہ ہم نے شریعت کے مقاصد کا خیال رکھا ۔یہ فقہی قاعدہ بھی یاد رکھنا چاہیے کہ الضرورات تبیح المحظورات یعنی ضرورتیں بعض ممنوعات کو بھی مباح کر دیتی ہیں ۔اس کا مطلب ہے کہ ہمیں سپریم کورٹ کے فیصلے کو من وعن قبول کرنا چاہئے ۔اگرچہ اس فیصلے کو بعض ریزولیوشن مانتے ہوں لیکن پھر بھی یہ مقاصد شریعت کے عین مطابق اورجس سے ہندوستان کے ہزاروں لاکھوں شہریوں کی جانوں کا تحفظ ہوگا ۔اگر اسے قبول نہ کیا جائے تو تباہی اور ہزاروں جانوں کا ضیاع ہو سکتا ہے اور اس طرح یہ معاملہ مقاصد شریعت کی خلاف ورزی کا باعث ہوگا ۔
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