ClickTV 8 March Women’s day Special
महिला दिवस के उपलक्ष्य में बाबासाहब भीम राव अम्बेडकर विश्विद्यालय के स्कूल ऑफ लॉ स्टडीज की सह व्याख्याता डॉक्टर सूफिया अहमद ने भारत में मुस्लिम महिलाओं की स्तिथि एवम उनके अधिकारों पर चर्चा करते हुए कहा कि शोध से पता चलता है कि भारत में अन्य धर्मों की महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाएं ज़्यादा पिछड़ी हुई हैं,चाहे वह शैक्षणिक रूप से हो ,सामाजिक रूप से ,या फिर आर्थिक और राजनैतिक रूप से ,उनका प्रतिनिधित्व संसद से पंचायत तक लगभग नगण्य है ,लेकिन अगर इसके पीछे के सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों की पड़ताल की जाए तो पता चलता है कि इसके लिए न तो इस्लाम धर्म , न शरीयत और न ही इस्लामिक सिद्धांत ही ज़िम्मेदार हैं जोकि इस्लामिक कानून का प्राथमिक स्रोत है जिसके अनुसार स्त्री और पुरुष को बराबरी का स्तर प्रदान किया गया है।
कुरान एवम हदीस में महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिया गया है। लेकिन कुरान के आदेशों की गलत व्याख्या कर नारी को पुरुष से पीछे करने की साजिश भी दिखाई पड़ती है जबकि क़ुरआन में अल्लाह ने साफ तौर से फरमाया है कि
“ऐ लोगों! डरते रहो अपने रब से जिसने पैदा किया तुमको एक जान से और उसी से पैदा किया उसका जोड़ा और फैलाये उन दोनों से बहोत से मर्द और औरतें “
इस्लाम ने महिलाओं को शिक्षा का अधिकार पुरुषों के बराबर दिया ,संपत्ति में उत्तराधिकार प्रदान किया,विवाह में सहमति एवम विवाह विच्छेद का अधिकार भी दिया लेकिन कुछ विशेष प्रकार की मानसिकता से ग्रस्त लोगों द्वारा भारत में महिलाओं को इन अधिकारों से वंचित करने का प्रयास किया जिसका असर यह है कि भारतीय मुस्लिम महिलाएं हर क्षेत्र में पिछड़ गईं।
जहां इस्लाम ने शादी में महर जोकि निकाह से पूर्व होने वाले पति द्वारा ,होने वाली पत्नी को ,तोहफे के रूप में प्रदान करना अनिवार्य किया और दहेज जैसे अभिशाप को समाज से समाप्त किया ,विवाह में सहमति में महिला को पहला अधिकार दिया और विवाह को समाप्त करने के लिए भी महिला को अधिकार दिया, लेकिन इन सब बातों को उस प्रकार समाज में बताया नहीं गया ।
उन्होंने कहा कि इस्लाम महिलाओं के विरुद्ध की जाने वाली किसी भी प्रकार की क्रूरता का समर्थन नहीं करता ,इस्लाम में पुरुषों को महिलाओं का अभिभावक बताया गया है लेकिन यह उन पर अत्याचार करने हेतु नहीं अपितु उन्हें सम्मान देने के लिए है ताकि पुरुष उनका सम्मान करें एवम उनके अधिकारों को हड़पने वाले न बनें।
इस्लाम बहुविवाह को किसी भी प्रकार बढ़ावा नहीं देता जबकि क़ुरआन और हदीस की गलत व्याख्या द्वारा ऐसा कहा जाता है जबकि सच यह है कि इस्लाम इंसाफ की बात करता है कि कोई व्यक्ति तब तक दूसरा निकाह नहीं कर सकता जबतक वह इंसाफ नहीं कर सकता हो ,
लेकिन अधूरी बात की गलत व्याख्या द्वारा ऐसा कहा जाता रहा है कि इस्लाम बहुविवाह को बढ़ावा देता है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी कई बार अपने निर्णयों में कहा है कि यह इस्लाम का आवश्यक भाग नहीं है ।
उन्होंने कहा कि महिलाओं की खराब स्तिथि के लिए इस्लाम नहीं बल्कि गलत व्याख्या और उसका प्रचार प्रसार ज़िम्मेदार है।सभी को कुरआन को समझ कर पढ़ना चाहिए ताकि उसे बहकाया न जा सके और उसपर ज़ुल्म न किया जा सके, सही जानकारी आवश्यक है उसके आभाव में ही कई बार हम अत्याचार के शिकार होते हैं जिस प्रकार इस्लाम में एक समय में तीन तलाक़ दिए जाने का मामला था और जिस पर कितना बवाल हुआ जबकि क़ुरआन में तलाक़ देने से संबंधित विस्तृत आदेश मौजूद है कि वह एक बार में नहीं है ।
डॉक्टर सूफिया अहमद
सहव्याख्यता बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर विश्विद्यालय लखनऊ
Sufi.bbau@gmail.com