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कुरआनी आयतों को अपने मतलब के मुताबिक़ प्रसंग में पेश करना आधुनिक ख्वारिज का शुरू से ही एक अमल रहा है। वह एक लम्बे समय से सीधे सादे मुसलमानों को अपने दामे फरेब और मक्र में फंसाने के लिए कुरआनी आयतों की गलत व्याख्या कर रहे हैं और अशिक्षित मुसलमानों को इस अकीदे की शिक्षा देते हैं कि इस्लाम अबदी निजात हासिल करने का एक रूहानी निजामे हयात नहीं बल्कि एक राजनीतिक, जाबिर, फासिवादी, पितृसत्तात्मक, प्रतिगामी और ज़न बेज़ार धर्म है।

वह ऐसे सीधे सादे मुसलमानों की कम इल्मी और बे बज़ाअती का भरपूर लाभ उठाते हैं जिन्हें बचपन से ही अँधेरे में रखा गया है, यह सोचते हुए कि अगर एक बार उनकी नकारात्मक मानसिकता बना दी गई और उनके धार्मिक विचारों में बुनियाद परस्ती का तथ्य शामिल कर दिया गया तो फिर कुरआन की कोई भी सहीह और उचित व्याख्या उनके लिए कार आमद नहीं होगी। लेकिन जो मुसलमान खुले मन, तर्क और ज्ञान से नवाज़े गए हैं वह एक ही विषय पर विभिन्न बिंदु की तलाश में लगातार संघर्ष करते हैं और फिर एक शानदार इल्मी आधार पर अपने इल्मी विचारों को परवान चढ़ाते हैं।

चूँकि इस्लाम ने अपने इन तमाम अनुयायिओं को जो ज्ञान व बुद्धि के मालिक हैं, कुरआनी आयतों की व्याख्या व तफ़सीर का पूरा हक़ दिया है, भिन्न ज़माने के अतिवादियों ने अपने नापाक उद्देश्यों के प्राप्ति के लिए रिआयत का गलत लाभ उठाया। सच तो यह है कि यह आज़ादी आम और सादा मुसलमानों की प्रतिदिन की ज़िन्दगी में राजनीतिक इस्लाम को अधिक शक्तिशाली बनाती है। इससे जिहादियों को इस्लाम की हकीकत पर इजारादारी कायम करने के लिए झुटा दावा करने में मदद मिलती है। यह एक खतरनाक सिलसिला है इसलिए कि यह केवल बड़े पैमाने पर इस्लाम की बदनामी और बुनियादी इंसानी अधिकारों की गंभीर अवहेलना ही नहीं, बल्कि गैर मुस्लिमों और मुख्य धारा में शामिल सभी गैर वहाबी मुसलमानों को मारने की एक आम इजाज़त की तरह है। एक दीनी दृष्टिकोण से अगर कोई जिहादियों के माध्यम से की गई कुरआन की ऐसी व्याख्या का एक काबिले एतिमाद जवाब पेश करना चाहे तो उसके लिए इस्लाम के मुतकद्देमीन और उलेमा के विचारों का गहरा अध्ययन आवश्यक है। इसलिए, मैंने एक छात्र की हैसियत से इस आयत के रिवायती और आधुनिक इस्लामी व्याख्याओं के बीच एक संतुलन बनाए रखने की कोशिश की है।

अब अहम कुरआनी उपयोग और भाषाई निहितार्थ की रौशनी में कुरआन में उल्लेखित शब्द “अल-फितना” की एक व्यापक शोध करते हैं।

पुरी आयत इस तरह है:

“और तुम उन (मुशरिकों) को जहाँ पाओ मार ही डालो और उन लोगों ने जहाँ (मक्का) से तुम्हें शहर बदर किया है तुम भी उन्हें निकाल बाहर करो और फितना परदाज़ी (शिर्क) खूँरेज़ी से भी बढ़ के है और जब तक वह लोग (कुफ्फ़ार) मस्ज़िद हराम (काबा) के पास तुम से न लडे तुम भी उन से उस जगह न लड़ों पस अगर वह तुम से लड़े तो बेखटके तुम भी उन को क़त्ल करो काफ़िरों की यही सज़ा है।“ (२:१९१)

सबसे पहले मैं उपर्युक्त आयत को इसके असल प्रसंग में रखता हूँ। इस आयत से पहले एक ऐसी आयत है जो खुदा की राह में लड़ने के कुरआनी अवधारणा की वजाहत करती है: “और जो लोग तुम से लड़े तुम (भी) ख़ुदा की राह में उनसे लड़ो और ज्यादती न करो (क्योंकि) ख़ुदा ज्यादती करने वालों को हरगिज़ दोस्त नहीं रखता” (२:१९०)।

इस आयत का बयान स्पष्ट और निश्चित है। यह केवल उन लोगों से लड़ने की अनुमति देता है जो पहले हमला करते हैं (अर्थात उनके हमले से खुद का बचाव करने के लिए), इसके अलावा यह आयत हद से आगे बढ़ने (अर्थात गैर उग्रवादी नागरिकों, मासूम बच्चों, महिलाओं, बूढ़े मर्दों और औरतों का कत्ल करने या जानवरों को हालाक करने या पेड़ों आदि को तबाह करने) से मना करती है। संक्षिप्त यह कि यह आयत मुसलमानों को केवल अपने बचाव में लड़ने की अनुमति देती है, आक्रामक और हिंसक तौर पर जैसा कि जिहादी लोग इस्लाम और जिहाद फी सबीलिल्लाह (खुदा की राह में जंग) के नाम पर आज लड़ते नज़र आते हैं।

इस आयत में यह भी बयान है कि: “और उन से लड़े जाओ यहाँ तक कि फ़साद बाक़ी न रहे और सिर्फ ख़ुदा ही का दीन रह जाए फिर अगर वह लोग बाज़ रहे तो उन पर ज्यादती न करो क्योंकि ज़ालिमों के सिवा किसी पर ज्यादती (अच्छी) नहीं।“ (२:१९३)

कुरआनी दृष्टिकोण के अनुसार, दीन का अर्थ है” एक मुकम्मल जीवन का कोड“ ना कि ”केवल धर्म” (जिससे मुराद सीमित मान्यताएं और रस्मों का एक तंग मजमुआ है)। और अल्लाह के बनाए हुए दीन या निजामे ज़िन्दगी का तकाजा यह है कि धर्म के नाम पर लोगों पर किसी भी तरह का जब्र व इकराह और ज़ुल्म व सितम गैर कानूनी है और अल्लाह की बारगाह में इसकी सज़ा आवश्य दी जाएगी। दीन (खुदाई निजामे जिंदगी) का यह व्यापक तसव्वुर स्पष्ट तौर पर फितना (दीन में ज़ुल्म व सितम या जब्र व इकराह) के विपरीत है।

इसलिए अगर पुरे प्रसंग की उचित तरीके से शोध की जाए तो यह बात स्पष्ट होती है कि उपर्युक्त आयतें किसी भी बहाने से मासूम गैर मुस्लिमों या मुसलमानों के क़त्ल को निषेध करार देती हैं। लेकिन समस्या यह है कि जिहादी “फितना” का अनुवाद अपने अमूर्त और हिंसक मान्यताओं के अनुसार “कुफ्र” और “शिर्क” करने पर अड़े हुए हैं, और इस वजह से वह तमाम काफिर और मुशरिक (गैर मुस्लिमों और गैर वहाबी मुसलमानों) को जहां कहीं भी पाएं, क़त्ल करने पर बज़िद हैं ख़ास तौर पर अपनी तथाकथित इस्लामी रियासतों में जबकि पूरा कुरआन सख्ती के साथ इस वहाबी नजरिये का विरोध करता है।

शब्द “फितना” के क्लासिकी, जदीद और कुरआनी अरबी में अर्थ

शब्द फितना एक अरबी कार्य (“फ-त-नून” फितन) से लिया गया है जिसका अर्थ: “बहकाना या गुमराह करना, लालच देना और वरगलाना है।“ एक ऐसा मसदर है जो मुसीबत व आज़माइश की तरफ इशारा करता है।“ (मकाबीसुल्लुगा, ४/४७२)। यह अरबी भाषा में शब्द “फितना” का बुनियादी अर्थ है। तथापि इसके और भी अर्थ हैं जिनमें से अक्सर एक दुसरे के समानार्थी हैं और अफरा तफरी, बेचैनी और बदअमनी की सूरते हाल की तरफ गुम्माज़ हैं। आधुनिक अरबी भाषा में शब्द फितना का प्रयोग उन तमाम अर्थों के लिए होता है: “फुट, मतभेद, रुसवाई, मुस्लिम कम्युनिटी के आंतरिक विवाद और सामाजिक अमन व शांति आदि में फसाद।

फरहंग नवीस इब्ने मंज़ूर (१३१२-१३३३) अपनी एक व्यापक क्लासिकी अरबी शब्दकोश “लिसानुल अरब” (अरब जुबान) में फितना के अर्थ का खुलासा करते हुए लिखते हैं: “फितना के अर्थ मुसीबत, आज़माइश, माल व दौलत, बच्चे, मतभेद और आग में जलाना हैं।“ (इब्ने मंज़ूर, लिसानुल अरब)।

कुरआन पाक में फितना के कुछ साझा अर्थों का भी प्रयोग किया गया है, लेकिन कुरआन मजीद में मुसीबत व आज़माइश की दोसरी किस्मों को बयान करने के लिए शब्द ‘फितना’ को अलग अर्थों में भी प्रयोग किया गया है:

कुरआन में शब्द “फितना” के अर्थ

१- आयत नम्बर १६:११० में मज़हब के मामलों में जब्र व इकराह के अर्थ

“फिर जिन लोगों ने तकलीफें (फुतिनु) उठाने के बाद वतन छोड़ा। फिर जिहाद किये और साबित कदम रहे तुम्हारा परवरदिगार उनको बेशक (आजमाइशों) के बाद बख्शने वाला (और उन पर) रहमत करने वाला है”

आयत नम्बर ८५:१० में ज़ुल्म व सितम:

२- “बेशक जिन लोगों ने ईमानदार मर्दों और औरतों को तकलीफें दीं फिर तौबा न की उनके लिए जहन्नुम का अज़ाब तो है ही (इसके अलावा) जलने का भी अज़ाब होगा”

३- आयत नम्बर २९:२ में आज़माइश और तकलीफें:

“क्या लोगों ने ये समझ लिया है कि (सिर्फ) इतना कह देने से कि हम ईमान लाए छोड़ दिए जाएँगे और उनका इम्तेहान न लिया जाएगा”

४- आयत नम्बर ५:४९ में किसी को उसके उद्देश्य से बहकाना या दूर करना:

“तब (उस वक्त) ज़िन बातों में तुम इख्तेलाफ़ करते वह तुम्हें बता देगा और (ऐ रसूल) हम फिर कहते हैं कि जो एहकाम ख़ुदा नाज़िल किए हैं तुम उसके मुताबिक़ फैसला करो और उनकी (बेजा) ख्वाहिशे नफ़सियानी की पैरवी न करो (बल्कि) तुम उनसे बचे रहो (ऐसा न हो) कि किसी हुक्म से जो ख़ुदा ने तुम पर नाज़िल किया है तुमको ये लोग भटका दें फिर अगर ये लोग तुम्हारे हुक्म से मुंह मोड़ें तो समझ लो कि (गोया) ख़ुदा ही की मरज़ी है कि उनके बाज़ गुनाहों की वजह से उन्हें मुसीबत में फॅसा दे और इसमें तो शक ही नहीं कि बहुतेरे लोग बदचलन हैं [यफतनुक]”

५- आयत नम्बर ५७:१४ में गुनाह का प्रतिबद्ध करना और निफ़ाक

“(क्यों भाई) क्या हम कभी तुम्हारे साथ न थे तो मोमिनीन कहेंगे थे तो ज़रूर मगर तुम ने तो ख़ुद अपने आपको बला में डाला और (हमारे हक़ में गर्दिशों के) मुन्तज़िर हैं और (दीन में) शक़ किया किए और तुम्हें (तुम्हारी) तमन्नाओं ने धोखे में रखा यहाँ तक कि ख़ुदा का हुक्म आ पहुँचा और एक बड़े दग़ाबाज़ (शैतान) ने ख़ुदा के बारे में तुमको फ़रेब दिया”

इमाम बगवी इस आयत की तफ़सीर में लिखते हैं: “इसका अर्थ है कि: तुम ने खुद को निफाक में डाल दिया और गुनाह ख्वाहिशात और वहम की वजह से खुद को तबाह कर दिया।“

६- आयत नम्बर ४:१०१ में हमला करना, तह व बाला करना और बंदी बनाना:

मुसलमानों जब तुम रूए ज़मीन पर सफ़र करो) और तुमको इस अम्र का ख़ौफ़ हो कि कुफ्फ़ार (असनाए नमाज़ में) तुमसे फ़साद करेंगे तो उसमें तुम्हारे वास्ते कुछ मुज़ाएक़ा नहीं कि नमाज़ में कुछ कम कर दिया करो बेशक कुफ्फ़ार तो तुम्हारे ख़ुल्लम ख़ुल्ला दुश्मन हैं।“

उपर्युक्त आयत में उन कुफ्फारे अरब का ज़िक्र है जो मुसलमानों पर नमाज़ और सजदे की हालत में उन्हें क़त्ल करने या फिर कैदी बनाने की गरज से हमला करते थे।

७- आयत नम्बर ९:४७ में लोगों के बीच विवादों को हवा देना:

“अगर ये लोग तुममें (मिलकर) निकलते भी तो बस तुममे फ़साद ही बरपा कर देते और तुम्हारे हक़ में फ़ितना कराने की ग़रज़ से तुम्हारे दरमियान (इधर उधर) घोड़े दौड़ाते फिरते और तुममें से उनके जासूस भी हैं (जो तुम्हारी उनसे बातें बयान करते हैं) और ख़ुदा शरीरों से ख़ूब वाक़िफ़ है।“

८- पागलपन और बेवकुफी जैसा कि इस आयत के अर्थ की वजाहत में है:

“तुम में से जो पागलपन में मुब्तिला है (अल-मफ्तून) ”

तफ़सीर के बेहतरीन मनहज (तफ्सीरुल कुरआन बिल कुरआन) को बरुए कार लानेऔर उपर मजकुरा तफ़सीर का मुताला करने के बाद मुस्लिम या गैर मुस्लिम अस्करियत पसंद शहरियों के कत्ले आम को सैधांतिक बुनियाद प्रदान करने के लिए आयत २:१९१ में शब्द “फितना” का अनुवाद या व्याख्या “कुफ्र” या “शिर्क” के तौर पर करने की कोई गुंजाइश बाकी नहीं रह जाती।

फितना का अनुवाद सादा तौर पर “जब्र”, “जुल व सितम”, “हंगामा”, “बगावत”, “फितना”, “इख्तिलाफ”, “फसाद और इंतेशार किया जाना चाहिए और किया भी गया है। आधुनिक कुरआनी मुफ़स्सेरीन ने इस अरबी शब्द (फितना) का अंग्रेजी अनुवाद उपर मजकुर किसी ना किसी शब्द से ही किया है। उन जदीद इस्लामी उलेमा में यह हज़रात विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं: मोहम्मद असद (ज़ुल्म व सितम), एम एम पीकथाल (यज़ा रसानी), यूसुफ अली (सऊदी आलम १९८५) (शोरिश और ज़ुल्म व सितम), यूसुफ अली (मुतवल्लिद- १९३८), (शोरिश और जुल व सितम), डॉक्टर लैला बख्तियार (इज़ा रसानी), डॉक्टर मोहम्मद ताहिरुल क़ादरी (शर अंगेजी और इंतेशार), मौलाना वहीदुद्दीन खान (मज़हबी ज़ुल्म व सितम), मौलाना अब्दुल माजिद दरियाबादी (बहकाना, भटकाना), मोहम्मद महमूद गाली, (मुखालिफ, बगावत), मौलाना अबुल आला मौदूदी (इज़ा रसानी), मौलाना मोहम्मद तकि उस्मानी, (इंतेशार पैदा करना), शब्बीर अहमद (जब्र, और ज़ुल्म व सितम), सैयद वकार अहमद (ज़ुल्म व सितम और ना इंसाफी), फारुक मलिक (फसाद पैदा करना), डॉक्टर कमाल उमर (हंगामा, शोरिश और ज़ुल्म), तलाल ए इतानी (ज़ुल्म व सितम), बिलाल मोहम्मद (ज़ुल्म व जब्र), डॉक्टर मुनीर मुंशी (इजा रसाई और ज़ुल्म व सितम), हामिद एस हामिद एस अज़ीज़ (ज़ुल्म व जब्र या बगावत और सरकशी), अहमद अली (ज़ुल्म व जब्र) और अब्दुल हलीम, इज़ा रसाई)।

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