रिओ और मोंतेविदेओ में फिर से लाल झंडा लहरा रहा है। एक तरफ ब्राज़ील में दिल्मा रौस्सेफ़ ने जीत दर्ज की है वहीँ उराग्वे में फ्रेंते एम्प्लियो से राष्ट्रपति पद के उम्मीद्वार तबरे वज़्क़ुएज़ ने अपेक्षा से बेहतर प्रदर्शन करते हुए पहले चरण में बढ़त दर्ज की है। नवम्बर में होने वाले चुनावों में उनके जीतने की उम्मीद की जा रही है। वज़्क़ुएज़ पहले भी राष्ट्रपति रह चुके हैं( उराग्वे लगातार पुनः चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं देता)। वे तत्कालीन राष्ट्रपति जोस मुजिका के उत्तराधिकार होंगे जो एक पुरानी कार चलाने , समलैंगिक विवाह को मंजूरी देने, गर्भपात को वैध करार देनाऔर सत्ता में होने के बावजूद औसत जीवन जीने के लिए प्रसिद्ध हैं।

ब्राज़ील में दिल्मा ने नवउदारवादी विज्ञान विशेषज्ञ को पटखनी दी है। वहीँ उराग्वे में वज़्क़ुएज़ जो पेशे से एक डॉक्टर हैं, नवम्बर में परंपरागत रुढ़िवादी लकाल्ले पोऊ का सामना करेंगे जो दक्षिणपंथी पार्टी के अध्यक्ष के बेटे हैं।यह चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि लातिन अमरीका में  पोऊ पहली बार गर्भपात के अधिकार, ड्रग आदि का विरोध कर चुनाव जीतना चाहते हैं।पोऊ के 68 वर्षीय समर्थक अद्रिअना हेर्रेरा जो की एक पेंशनभोगी हैं, के हवाले से रायटर्स ने लिखा है कि, “ अब हम गर्भपात करवा रहे हैं और राज्य चरस बेच रहा है”। “ मेरा क्रोध उन नीतियों को लेकर है जिसके कारण देश पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। पोऊ ने टैक्स में कमी करने का भी वायदा किया है। इसके बावजूद भी पहले चरण में उन्हें हार का मुह देखना पड़ा और अनुमान यह है कि वे अंततः हार का सामना करेंगे।

ह्यूगो चावेज़ 1998 में पहली बार वेनेज़ुएला के नेता चुने गए। इससे यह बात साफ़ होती है कि पिछले पन्द्रह सालों से लातिन अमरीका ने वामपंथ की तरफ अपने कदम मोड़ रखे हैं। हाल ही में चिली में मिचेल बचेलेट, इक्वेडोर में राफेल कोर्रा, की जीत और ब्राज़ील एवं उराग्वे के नतीजों से यह स्पष्ट होता है कि वाम अभी भी यहाँ मज़बूत स्थिति में है। यह भी बात साफ़ होती है कि विकास और समाजवाद की राजनीति करने वाला वाम पक्ष इस इलाके में भारी जनसमर्थन के साथ अब अपने आगे के नेतृत्व का रास्ता और प्रशस्त कर रहा है। इसमें चावेज़, लूला और किर्चनर जैसे नेताओं का भारी योगदान रहा है।

इसके पीछे की वजह को समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। अर्थव्यवस्था 1980 और 90 के दशक में नवउदारवाद के भयावाह रूप का शिकार हुई। मार्क वेइस्ब्रोत ने ब्राज़ील और बेन डंगल ने बोलीविया के सन्दर्भ में इसे समझाया है। उरुग्वे के बारे में रायटर्स ने लिखा है कि, “ उरुग्वे के अर्थव्यवस्था जिसका कुल मूल्य 55 बिलियन डॉलर है, 2005 के बाद से हर वर्ष 5.7 % के औसत पर वृद्धि कर रही है। सरकार ने इस बार हर बार की तुलना में कम वृद्धि की घोषण की है, जो 3 प्रतिशत है। पर यह आसपास के बड़े देशों जैसे अर्जेंटीना और ब्राज़ील से अधिक है। उरुग्वे में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगो की संख्या 2006 के एक तिहाई के मुकाबले 11.5 % पर आ गई है। 27 वर्षीय छात्र सोलेदार्ड फेर्नादिज़ ने कहा कि, “मै एक ऐसे विस्तृत फ्रंट के साथ ही हूँ जो देश के लिए सफलता सुनिश्चित करे और मुजिका ने देश के शोषित वर्ग का ध्यान रखा है। “

एक साल बाद अर्जेंटीना में होने वाले चुनाव में नवउदारवादी दक्षिणपंथी ताकतों के जीतने की उम्मीद है। दिल्मा के जीत का अंतराल भी उतना नहीं था, जितने की उम्मीद की गई थी। दिल्मा ने आर्थिक न्याय आदि जैसे मुद्दों पर चुनाव लड़ते हुए यह जीत दर्ज की। इसमें “ रुस्सेफ़  के खिलाफ चल रहे असंगतअभियान का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है”। पर यह बात स्पष्ट है कि ब्राज़ील में एकत्रित लोकतांत्रिक वाम की पकड़ अब भी मज़बूत बनी हुई है। कई कार्यकर्ताओं के लिए, जो पीटी के खिलाफ मुखर रहे हैं,  वोट न डालना, या गलत गलत वोट डालना, समाधान नहीं था। यह अमरीका के चुनाव से बिलकुल अलग है, जहाँ चुनाव में मौजूद उम्मीदवारों में कुछ खास फर्क नहीं होता( जैसा बुश और क्लिंटन के समय हुआ)। इससे बेहतर तो यही है कि वे एक ही पार्टी से चुनाव लड़ें।

पोऊ को उम्मीदवार बनाते हुए दक्षिणपंथियों ने हर उस तरीके को अपना लिया है जिससे वे सत्ता में वापस आ सके। नवउदारवाद समर्थक हार का मुह देख चुके हैं। “आधुनिकरण” के पोषकों को भी हार का सामना करना पड़ा। ( चिली के सेबेस्टियन पिनेरा, 2010 में तभी चुनाव जीत पाए जब उन्होंने वाम के सामाजिक और आर्थिक आदर्शो को अपनाया। उन्होंने अपना चेहरा उस यूरोपियन कांसेर्वटीव की तरह बनाया था जो समलैंगिको से घृणा नहीं करता, पर उनके असफल शासन ने वाम की वापसी का रास्ता बनाया)।परम्परावादी भी हार चुके हैं (एक समय स्पेन के नव फासीवादी जोस मरिया लातिन अमरीका का चक्कर इसलिए लगा रहे थे ताकि वे नवउदारवादी, मुस्लिम विरोधी, कैथोलिक समुदाय को एकत्रित कर सके और इसके दम पर  वे चाविस्मो का मुकाबला कर सकें)। और अब पोऊ के साथ संस्कृति के रक्षकों की भी हार हुई है। इन परिणामों ने दक्षिण पंथियों को चोटिल करके उस स्थिति में पंहुचा दिया है जो 2004 में हैती में , 2009 में होंडुरस और 2012 में पैराग्वे में हुआ।

दक्षिणपंथी ताकतों की, एक ऐसे गठबंधन को बनाने की असफलता जिससे वे भविष्य को ध्यान में रखते हे सोच सके, यह दर्शाती है कि लातिन अमरीका के शीत युद्ध ने 5 दशक तक मतदाताओं की पसंद को दबाने का काम किया। अमरीका ने इसे आर्थिक रूप से मदद देते हुए वाम के विरोध में अनेक दक्षिणपंथी ताकतों को एकत्रित करने की कोशिश की।  इस योजना के साथ वे अब वाम का चुनावों में मुकाबला नहीं कर सकते। मतदाता जो आर्थिक सुरक्षा, शान्ति और सामाजिक हित की कल्पना चाहते हैं, इसे ध्यान में रखा जाए तो दक्षिणपंथी इसे पूरा करने के जरा भी करीब नहीं हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here