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राजनैतिक हलकों में एक नई बहस ने जन्म ले लिया है कि आखिर एक समय समाजवादी पार्टी के सांगठनिक चक्रव्यूह के कुशल निर्माता रहे शिवपाल यादव ने जिस तरह से भतीजे अखिलेश यादव को अपना नेता माना है और खुद को स्वयं हाशिए पर ला खड़ा किया है यह अखिलेश की विजय है या पराजय?
क्योंकि जिस तरह शिवपाल यादव के करीबियों को टिकट नहीं मिल रहा और शिवपाल यादव साफ तौर से कह रहे हैं कि हम गठबंधन में हैं हमने सीटों की कोई बात नहीं की यह साफ इशारा करता है कि कहीं न कहीं कुछ बड़ा खेल चल रहा है यदि जैसा पूर्व में यह कयास लगाया जाता रहा है कि यादव परिवार की जंग एक छलावा है इसकी हकीकत कुछ भी नहीं है अगर इसमें सच्चाई है तो इस पूरे प्रकरण को भी उसका हिस्सा ही माना जाना चाहिए लेकिन जिस तरह की झटपटाहट देखने को मिल रही है उसमें यह सच नही प्रतीत होता।
अखिलेश यादव और शिवपाल यादव सहित गंठबंधन के सभी दल जिताऊ प्रत्याशी की बात कर रहे हैं ऐसे में शिवपाल यादव की लिस्ट में क्या एक भी ऐसा नाम नहीं था या है जो इस चुनावी वैतरणी को पार कर सके ? यह बड़ा सवाल है क्योंकि शिवपाल यादव के साथ कमाल यूसुफ मलिक जैसा कद्दावर नेता मौजूद है जहां डुमरियागंज विधानसभा से उनके परिवार में उनकी पत्नी या बेटे को टिकट देने का मतलब एक सीट पर ही नहीं पूरे बस्ती मंडल में एक संदेश के साथ जीत की इबारत लिखना तय हो वहां भी मामला अधर में हैं वहीं सरोजनीनगर सीट पर शारदा प्रताप शुक्ला भी ऐसे दावेदार हैं जिनके जीतने की संभावना अधिक है रघुराज शाक्य,शिवकुमार बेरिया शादाब फातिमा जैसे लोग मौजूद हैं जोकि जिताऊ उम्मीदवारों की फेहरिस्त में हैं लेकिन इनको टिकट न देने का अगर फैसला होता है तो संदेश साफ है की मामला जिताऊ उम्मीदवार का नहीं बल्कि अहंकार का है।
अखिलेश यादव कहीं न कहीं विजय रथ यात्रा में उम्मीदवारों द्वारा जुटाई गई भीड़ को देखकर और चुटुकारों द्वारा दिखाई गई तस्वीर से अत्यधिक उत्साह का शिकार हैं या फिर कहीं न कहीं उनके भीतर योगी आदित्यनाथ की कही बात का डर घर कर गया लगता है जोकि उन्होंने एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में 80 ,20 वाला बयान दिया था,कहीं न कहीं rअखिलेश उसी पिच पर खेल रहे हैं जिसकी क्यूरेटर भारतीय जनता पार्टी है।
सॉफ्ट हिंदुत्व की जिस विचारधारा को कांग्रेस ने अपने विनाश के लिए चुना लगुभग सभी कथित सेक्युलर दलों द्वारा इसे अपनाया गया है और उनका भी वही हाल होना तय है जो कांग्रेस का हुआ हालांकि कांग्रेस अब काफी हद तक इस बात को समझ चुकी है लेकिन अभी भी राहुल और प्रियंका के इर्द गिर्द कुछ ऐसे लोग मौजूद हैं जो उन्हें भरमाने में कामयाब होते हैं जिस समय प्रियंका गांधी लखीमपुर वाले मामले से आंधी की तरह उत्तर प्रदेश के जनमानस के मस्तिष्क पर छा गई थीं और लगातार वह अपने संघर्ष से लोगों के बीच पहुंच गई थीं सिर्फ कासगंज में एक मुस्लिम लड़के की पुलिस हिरासत में मौत पर चुप्पी साध गई
जिसने मुसलमानों के कांग्रेस की तरफ बढ़ते कदम पर अचानक ब्रेक लगा दिया इस पूरे मामले में उनको भरमाने में यही मंडली कामयाब हुई ।
जातिगत आधार पर कुल प्रतिशत सभी जातियों को मिलाकर 100% ही है इससे अधिक संभव नहीं होता लेकिन यदि हर जाति के नेता की बात मान ली जाए और उस आधार पर जोड़ा जाए तो प्रतिशत 150% हो जाता है इसे कोई समझने को तैयार नहीं है सभी ब्राह्मण वोटरों को साधने में लगे हैं अखिलेश यादव का पूरा ध्यान वहीं केंद्रित है जबकि ब्राह्मण समाज “ओय पंडित” शब्द से घृणा करता है इसकी समझ उन्हें नहीं है मतलब साफ है जहां ब्राह्मण उम्मीदवार होगा वहां तो ब्राह्मण समाज समाजवादी पार्टी को वोट देगा वरना नहीं लेकिन उनका पूरा फोकस ब्राह्मणों को साधने में है।
जबकि ब्राह्मण वोटर अभी भी भारतीय जनता पार्टी के साथ मजबूती से खड़ा है अगर वह वहां से हटा भी तो सिर्फ घर वापसी करेगा यानी उसकी मंजिल कांग्रेस होगी बीच के किसी स्टेशन पर वह नहीं उतरेगा वहीं जाट लैंड में भी मामला अधर में है अभी नफरत की दीवार पूरी तरह ढही नहीं है ऐसे में सिर्फ पश्चिम उत्तरप्रदेश में गठबंधन के भरोसे बैठ कर नुकसान तय है क्योंकि राकेश टिकैत का रुख साफ नहीं है जिस समय उन्हें पश्चिम उत्तरप्रदेश में लोगों को समझाना चाहिए वह उत्तर प्रदेश दर्शन पर हैं ।
अखिलेश यादव ने अपने प्रत्याशियों को सूची नहीं जारी करने की बात करके जमीन पर माहौल बना रहे उम्मीदवारों को असमंजस में डाल रखा है क्योंकि जनता उनसे उनके टिकट के बारे में सवाल कर रही है और कोई भी आश्वस्त नहीं कर पा रहा है जबकि कई जगह बी फार्म पहुंच भी गया है लेकिन जनता मानने को तैयार नहीं है इससे अब हो रही देरी का नुकसान ज्यादा दिखाई पड़ रहा है।
चाचा शिवपाल की स्तिथि भी स्पष्ट नहीं हो पा रही है जिससे भी अब बेचैनी बढ़ने लगी है जहां अचानक बीजेपी में भगदड़ से समाजवादी पार्टी ने बढ़त बनाई थी अब इस देरी और गंठबंधन दलों की अस्पष्ट स्तिथि ने उसे वापिस धरातल पर लाना शुरू कर दिया मुसलमान वोटर भी पश्चिम के माहौल को देखकर एक अलग मूड बना रहा है अगर ऐसा होता है तो स्तिथि विकट हो सकती है।
शिवपाल और अखिलेश में अगर सब कुछ सही नहीं है तो जमीन पर परिणाम चौकाने वाले होंगे क्योंकि अगर चाचा की नाराज़गी का संदेश जाता है तो बीजेपी को एक और मौका अर्पणा यादव के बाद मिलने वाला है क्योंकि सिर्फ भगदड़ में जमा किए गए लोगों से चुनावी चक्रव्यूह को भेदना मुमकिन नहीं है इसके लिए चाचा शिवपाल का साथ जरूरी है अगर ऐसा नहीं होता तो न सिर्फ शिवपाल यादव बल्कि मुलायम कुनबे को भारी नुकसान होगा।बाकी समय बतायेगा कि चाचा शिवपाल का समर्पण भतीजे अखिलेश की जीत है या हार।
यूनुस मोहानी
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