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यूं तो अब कहीं न कहीं बदलाव के सुर सुनाई देने लगे हैं और इस आवाज को नये समीकरणों से बल मिला है जिस तरह से लगातार दूसरे दलों के नेताओं का समाजवादी पार्टी की ओर रुझान बढ़ा है और रोज कोई न कोई बड़ा चेहरा भारतीय जनता पार्टी को नाव से उतर कर समाजवादी कश्ती में सवार हो रहा है उससे भी यह संदेश जा रहा है कि हो न हो सत्ताधारी दल की नाव भवर में फंस चुकी है।
यह तो एक मात्र पहलू है इसी बात का दूसरा पहलू यह भी है कि एक ओर समाजवादी पार्टी और उसके गटबंधन में शामिल दलों के वह कार्यकर्ता हैं जिन्होंने पिछले पूरे पांच सालों तक सरकार का उत्पीड़न सहा है और जमीन पर मेहनत की है और दूसरी तरफ इतनी बड़ी संख्या में आयातित नेता है जिनका कद भी बड़ा है ऐसे में दोनों के मध्य सामंजस्य बिठा कर दोनो को ही हिस्सेदारी देना बड़ी चुनौती है यदि यहां पर कोई गड़बड़ होती है तो बीच मझधार में नाव को खतरा है क्योंकि इससे गुटबाजी और बगावत का खतरा भी होगा क्योंकि यह मान कर चला जा रहा है की अधिकतर लोग बीजेपी को छोड़ कर टिकट के आश्वासन पर ही समाजवादी लाल टोपी पहन रहे हैं ऐसे में उन जगहों पर जहां समाजवादी पार्टी को हरा कर वही नेता बीजेपी से विधायक चुना गया था अब समाजवादी का प्रत्याशी होगा तो पहले से वहां मेहनत कर रहे लोगों की प्रतिक्रिया क्या होगी ?
2017 विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी 142 सीटों पर लड़ाई में ही नहीं थी पार्टी ने इन 142 सीटों पर क्या कोई विशेष योजना बनाई है या फिर इन 142 सीटों पर इन दलबदलुओं पर ही दांव खेलने की तैयारी है ? या फिर मौजूदा सरकार से आम जनता के गुस्से पर ही सारी उम्मीद है।हालांकि पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी पूरी 403 सीटों पर चुनाव नहीं लड़ी थी उसने मात्र 311 सीटों पर ही चुनाव लड़ा था उनमें 169 क्षेत्र ऐसे हैैं जहां वह दूसरे नंबर पर रही मगर इसमें 25 सीटें ऐसी थी, जहां उसके प्रत्याशियों को 50 हजार से अधिक वोटों से हार का मुंह देखना पड़ा इससे इतर 27 सीटें ऐसी भी हैैं, जहां उसके प्रत्याशी 50 हजार से अधिक वोटों से चुनाव हारे हैैं। नोएडा सीट पर सपा प्रत्याशी सुनील चौधरी भाजपा के पंकज सिंह से एक लाख से अधिक वोटों से चुनाव हार गया वहीं सिर्फ 17 सीटें ऐसी थीं, जिन पर सिर्फ पांच हजार मतों से सपा प्रत्याशियों की हार हुई है।
समाजवादी पार्टी 29.29 फीसद वोट लेकर 2012 में पूर्ण बहुमत से सरकार में रही वहीं 2017 में 21.8 फीसदी वोट मिले और पार्टी सिर्फ 47 सीटों पर सिमट गई चाचा भतीजा विवाद के चलते पार्टी को 2019 आम चुनाव में बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल के साथ गठबंधन के बावजूद बड़ा नुकसान पहुंचा और सिर्फ 5 सीटों पर ही उसके प्रत्याशी जीत दर्ज कर सके जिनमें खुद अखिलेश और मुलायम सिंह को छोड़ दिया जाये तो रामपुर ,मुरादाबाद और संभल से आजम खान ,डॉक्टर एसटी हसन,शफीकुर्रहमान बर्क ही मुस्लिम वोटों के बल पर चुनाव जीत सके बाकी सभी सीटें डिंपल यादव ,धर्मेंद्र यादव सहित हार गई उसके बाद से लगातार पार्टी की उपस्तिथि जनता के मुद्दे उठाते हुए नहीं दिखी पूरी पार्टी अपने राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ जमीन से उठकर ट्विटर पर सवार रही जिससे लोगों में गुस्सा भी रहा ।
हालांकि विपक्ष का काम कांग्रेस ने बखूबी निभाया लेकिन उसका जमीन पर संगठन न होना उसके लिए वैसा माहौल नहीं बना सका कि वह मुख्य विपक्ष के रूप में खड़ी हो सके अभी उत्तर प्रदेश का चुनाव दो दलों के बीच सिमटा हुआ है लेकिन प्रत्याशियों के चयन में की गई चूक सभी संभावनाओं को मटियामेट कर सकती है वजह यह है कि पूरा माहौल संघर्ष की बुनियाद पर नहीं बल्कि मात्र किसी मजबूत विकल्प के आभाव की वजह बना हुआ है।
यदि समाजवादी पार्टी के गठबंधन पर नजर डाली जाये तो जयंत चौधरी के 3% जाट,ओमप्रकाश राजभर के 4% राजभर समाज,और कृष्णा पटेल के 4% पटेल समाज का यदि 70% वोट भी मान लिया जाए तो 8% और यादव समाज का 6% वोट मिलाकर 14% ही होता है बाकी सबकुछ मुसलमानों के वोट पर निर्भर है यदि 22% मुस्लिम साथ खड़ा होता है तब यह वोट 36 % पहुंचता है जबकि जिस ब्राह्मण वोटर को सबसे ज्यादा लुभाने का प्रयास किया जा रहा है वह दिखावे मात्र में ही समाजवादी पार्टी के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है जो कड़वा सच है प्रदेश के स्वर्ण समाज का जुड़ाव अभी भी पूर्व की ही भांति भारतीय जनता पार्टी के साथ ही है वहीं जाटव समाज को यदि छोड़ दिया जाये तो अभी भी पासी समाज ,वाल्मीकि ,सोनकर आदि बिरादरी भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़ी दिखती हैं वहीं कुल ओबीसी समाज में भी बहुत अधिक बदलाव नहीं दिखता है जिसकी वजह से साफ कहा जा सकता है कि टक्कर आसान नहीं है ।
यदि टिकट बंटवारे में जरा भी चूक होती है तो बड़ा नुकसान तय है क्योंकि मुस्लिम समाज राजनैतिक रूप से पिछले 10 सालों में अधिक परिपक्व हुआ है और अब वह बीजेपी से डर कर वोट देने को तैयार नहीं है और गलत टिकट बंटवारे की वजह से टैक्टिकल वोटिंग के लिए मन बनाये हुए है क्योंकि कहीं न कहीं अपनी उपेक्षा की वजह गहरी नाराजगी उसके मन में है जिसे वह अपने वोट से जाहिर कर सकता है।
अगर जिन सीटों पर मुसलमान दावेदारी करता रहा है वहां उन्हें टिकट नहीं दिया जाता और बीएसपी या कांग्रेस वहां यह दांव खेलती है तो मुस्लिम वोटर उसी प्रकार वोट कर सकता है जैसे यादव समाज अब तक करता आया है यानी जहां मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में होता है वहां बीजेपी को वोट करना या फिर जिस पार्टी से यादव समाज का प्रत्याशी हो उसे वोट करना उसी तर्ज पर मुसलमान भी इस बार वोट करने का मन बनाए हुए हैं और काफी हद तक अगर वह ऐसा करता है तो यह उसकी राजनैतिक जीत होगी । प्रदेश में ऐसी कुल 134 सीट हैं जिनपर या तो मुसलमान वोटर अकेले अपने वोट से जीत हार तय करते हैं या फिर वह ड्राइविंग सीट पर हैं ।
मुसलमानों ने अपनी नाराज़गी समाजवादी पार्टी को अभी हाल में संपन्न हुए उपचुनावों में दिखाई भी जब उन्नाव जिले की बांगरमऊ से समाजवादी पार्टी ने मुस्लिम की जगह राजू पाल को टिकट दिया तो समाजवादी पार्टी कांग्रेस से नीचे पहुंच गई और मुसलमानों ने उसे वोट नही दिया इसकी संभावना अभी भी बहुत है यही वजह है कि बीएसपी ने बड़ी संख्या में अपने मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं यदि समीकरण बदल जाता है तो दलित और मुस्लिम वोट मिलकर चौकाने वाले परिणाम भी ला सकते हैं इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
अब देखना यह है कि सिर्फ सरकार से नाराज़गी और दलबदलुओं के दम पर जो माहौल तैयार हुआ है क्या यह सरकार बनाने के लिए काफी है या फिर अभी बहुत कुछ मृगमरीचिका जैसा ही है???
यूनुस मोहानी
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