शहीद मौलवी मुहम्मद बाक़िर देहलवी याद में एक अनोखा लेख, जिसे भीगी पलकों से ही पढ़ा जा सकता है………….
Click TV Special

हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई में उर्दू भाषा और पत्रकारिता की भूमिका राष्ट्रीय इतिहास का एक रोमांचक अध्याय है। महात्मा गांधी तो अंग्रेज़ों से छिपाने के लिए महत्वपूर्ण मालूमात उर्दू में ही भेजा करते थे। यही नहीं क्रांतिकारियों ने तो एक भूमिगत उर्दू रेडियो स्टेशन भी बना रखा था। वास्तविकता यह है कि उर्दू अखबारों, लेखकों, कवियों और पत्रकारों ने स्वतंत्रता संघर्ष में महत्वपूर्ण भाग लिया। कई उर्दू पत्रकार और कवि फांसी पर चढ़ाए गए, उनकी संपत्तियां ज़ब्त हो गईं और मकानों पर क़ब्ज़े किए गए, अखबारों के लिए ज़मानत मांगी गई, मगर फिर भी मादरे-हिंद के जियाले हिंदू-मुसलमान और सिखों ने मिलकर आपसी एकता के साथ स्वतंत्रता संघर्ष शुरू किया। इस संघर्ष में उनका सबसे बड़ा सहारा उर्दू भाषा और उसकी पत्रकारिता यानि “उर्दू सहाफत” थी।

उर्दू पत्रकारिता ने न सिर्फ यह कि जंग-ए-आज़ादी में हिस्सा लिया और और अपने पाठकों को जागरूक किया, बल्कि सांप्रदायिक एकता और सामाजिक सद्भाव में भी उर्दू अखबारों की अह्म भूमिका रही। स्वाधीनता संग्राम के दौरान इस भारतीय भाषा ने उन लोगों में आशा जगाई जो, हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव और अंतर्धार्मिक सद्भाव पर आधारित समाज की स्थापना के पक्षधर थे और मानते थे कि इसी से हमारा देश और समाज प्रगतिशील होगा।

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की क्रान्ति की शुरुआत एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई थी, परन्तु बाद में उसका स्वरूप बदल कर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध एक जनव्यापी विद्रोह हो गया, जिसे आज भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा जाता है। इस पहली जंग-ए-आज़ादी के सरफरोशों में बहादुररशाह ज़फर, बेगम हज़रत महल, जनरल बख्त खां, अज़ीमुल्लाह खां, मौलाना अहमदुल्लाह शाह फ़ैज़ाबादी, फिरोज़ शाह, महारानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, तातया टोपे, बाबू कुंवर सिंह के नाम मशहूर हैं। यह सब के सब अपने अपने फरमान, पोस्ट और मोहरों में उर्दू ही का उपयोग करते थे।

उर्दू का पहला अख़बार “जाम-ए-जहां नुमां” 1822 में प्रकाशित हुआ और मुगल साम्राज्य के अंत तक लगभग 40 उर्दू के अख़बार जारी हो चुके थे, जिन्होंने जनता में देशभक्ति, वतन परस्ती और देश की स्वतंत्रता और आज़ादी की भावना पैदा करने में प्रमुख भूमिका निभाई।

आज ही के दिन 16 सितम्बर को उर्दू पत्रिकारिता के पहले जांबाज़ सिपाही और शहीद-ए-क़लम मौलवी मुहम्मद बाकिर को 1857 में इस लिए सज़ा-ए-मौत दी गई क्यूंकि सवतंत्रा संग्राम में अँगरेज़ उनके “दिल्ली उर्दू अखबार” की क्रांतिकारी भूमिका और उसके महत्व का अंदाज़ा लगा चुके थे। भारत की आज़ादी में मौलवी मुहम्मद बाकिर के बलिदानों को इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा। जब भी उर्दू पत्रकारिता की आजादी की लड़ाई का जिक्र होता है, तो ”दिल्ली उर्दू अख़बार” के संस्थापक मौलवी बाकिर का नाम हमारी ज़बानों पर ज़रूर आता है। सच तो यह है कि उनके उल्लेख के बिना भारतीय उर्दू पत्रकारिता का इतिहास पूरा ही नहीं होता।

मौलवी मुहम्मद बाकिर का जन्म 1780 में दिल्ली के एक विद्वान परिवार में हुआ था। उनके पूर्वज नादिर शाह के शासनकाल में ईरान से भारत आए थे। उनका वंश पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (स.) के फ़ारसी साहबी हज़रत सलमान फ़ारसी से मिलता है। उनके पिता मौलाना अखुंद मुहम्मद अकबर दिल्ली के जाने-माने इस्लामी विद्वान और दार्शनिक थे। वह अपने इकलौते बेटे को भी अपनी तरह ही एक स्कॉलर बनाना चाहते थे। लेकिन मौलवी मुहम्मद बाकिर का मिजाज बचपन से ही कुछ अलग था। उन्हें केवल विद्वान नहीं बल्कि एक “विद्वान-योद्धा” (Scholar-Warrior) बनना पसंद था। इसलिए उन्होंने उर्दू साहित्य की दुनिया में भी एक क्रांतिकारी रास्ता अपनाया जो बाद में देश की खिदमत के काम आया। इसलिए आज उन्हें भारत का पहला शहीद पत्रकार कहा जाता है। जब उन्होंने अंतिम सांस ली तो महमूद रामपुरी के बक़ौल, हाल यह था:

मौत उसकी कि ज़माना करे जिस पर अफ़सोस

यूँ तो दुन्या में सभी आये हैं मरने के लिए!

1857 में भारतीयों ने अंग्रेज़ी साम्राज्य के खिलाफ जो विद्रोह किया, अंग्रेज़ों ने उसकी ज़िम्मेदारी उस उक्त के उर्दू अखबारों पर ही डाली और इसके आरोप में ”दिल्ली उर्दू अख़बार” के संस्थापक मौलवी मुहम्मद बाक़िर को सूली पर चढ़ा दिया। मौलवी मुहम्मद बाक़िर (1780-1857) एक शिया विद्वान और आज़ादी के लिए शहीद होने वाले पहले पत्रकार थे जिनके बेटे मोहम्मद हुसैन आज़ाद के नाम भी अंग्रेज़ों ने गिरफ्तारी का वारंट जारी किया था।

ब्रिटिश सरकार का विरोध करने और देश की स्वतंत्रता का समर्थन करने के लिए किसी भी अन्य भाषा के पत्रकार को मौलवी मुहम्मद बाकिर से पहले तोप से नहीं उड़ाया गया। यह बाक़िर थे जिनको अंग्रेज़ों ने न सिर्फ यह कि सज़ाए मौत दी थी बल्कि उन्हें दर्दनाक मौत देने के बाद भी अंग्रेज चुप नहीं रहे। वह उनके बेटे मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद को ढूंढ कर मारने के फ़िराक़ में लग गए, जो अखबार के प्रकाशक थे। उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया। आखिरकार वह जान बचाने के लिए पैदल ही लखनऊ से निकल गए।

उनके समकालीन उर्दू अख़बार “सदिकुल अख़बार” के संपादक जमील हिज्र पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उन्हें तीन साल की सज़ा हुई। इसी सिलसिले की एक कड़ी 1857 में बहादूरशाह ज़फर के नवासे (नाती) मिर्ज़ा बेदार बख्त के लिखित आदेश से प्रकाशित होने वाला उर्दू और हिंदी अख़बार “पयाम-ए-आज़ादी” था जो सही मायने में स्वतंत्रता का अग्रदूत बन कर सामने आया। यही कारण है कि ब्रिटिश शासकों ने इस अख़बार को बंद कर दिया। यहां तक कि जिन लोगों के घरों से इस अख़बार का एक अंक या एक पन्ना भी उपलब्ध हुआ, उन्हें भी अंग्रेज़ों के ज़ुल्म का शिकार होना पड़ा। इस अख़बार के एडिटर, प्रिंटर और पब्लिशर बेदार बख्त को मौत की सज़ा दी गई।

इस तरह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सबसे काबिल क़लमकार और सूफी-फ़क़ीर जिन्हें फिरंगियों ने अपना सबसे बड़ा दुश्मन माना था, वह मौलवी अहमदुल्लाह शाह फ़ैज़ाबादी थे। जब आज़ादी की कहीं चर्चा भी नहीं थी उस वक्त अंग्रेज़ों की बर्बरता के विरुद्ध उन्होंने पर्चे लिखे, पत्रिकाएं निकालीं और देश में घूम-घूम कर संगठित तरीके से लोगों को इकट्ठा और एकजुट किया। वह स्वतंत्रता सेनानी जिसे इतिहास के पन्नों में दफन कर दिया गया वे कभी मौलवी अहमद उल्लाह शाह, कभी सिकंदर शाह, कभी नक्कार शाह, तो कभी डंका शाह आदि नामो से जाने जाते थे। जिस प्रकार उनके कई एक नाम थे, वैसे ही उनकी शख़्सियत के कई आयाम भी थे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here