उत्तर प्रदेश में देश के सबसे बड़े राजनैतिक घराने में जो कुछ बीते दिनों घटा वह किसी से छुपा नहीं है।
परिवार में शुरू हुई घमासान की वजह से समाजवादी पार्टी की रजत जयंती आते आते जिस तरह टूट हुई और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में जैसे पार्टी को हार का सामना करना पड़ा उसके लिए विलेन के तौर पर बार बार एक चेहरा सामने आया और यह चेहरा किसी और का नहीं बल्कि प्रोफेसर रामगोपाल यादव का था।
अब इन दावों में कितनी सच्चाई है कि प्रोफेसर ही पूरी महाभारत में शकुनि मामा के किरदार में थे नहीं कहा जा सकता लेकिन जनता में जो बात गई वह यही है उसकी सीधी वजह पार्टी को अपनी संगठनात्मक शक्ति से ताकतवर बनाने में दिन रात लगे रहने वाले मुलायम सिंह यादव के सगे छोटे भाई शिवपाल यादव की अपमान के बाद पार्टी से विदाई खुद नेता जी से उनकी खुद की बनाई पार्टी से राष्ट्रीय अध्यक्ष पद छीना जाना माना जाता है।
देश के दो चार बड़े राजनेता में से एक मुलायम सिंह का उन्हीं की पार्टी में इस तरह का अपमान और लगातार पार्टी के महत्वपूर्ण निर्णयों में प्रोफेसर रामगोपाल यादव के बढ़ते दखल ने इस धारणा को और अधिक बल दिया है।
अब सवाल उठता है आखिर यह सब क्यों हुआ ? यह कहीं किसी बड़ी साजिश का हिस्सा तो नहीं ? उत्तर प्रदेश में यादव नेतृत्व को समाप्त करने का प्लान तो नहीं ? अगर इसे प्लान माना जाए तो आखिर कौन यह चाहता है ? किसे हो रहा है सीधा लाभ ? क्या लोगों में जो चर्चा है उसका कोई आधार है ?
इन सवालों का सीधा जवाब यही है कि यदि यादव नेतृत्व समाप्त होता है या कमजोर होता है तो सीधा लाभ बीजेपी को है और इसको समाप्त करने के लिए पहले टूट का खेल खेला जा चुका है और पार्टी की स्थापना से लेकर जनवरी 2017 तक लगातार पार्टी को मजबूत करते चले आ रहे शिवपाल यादव की बेदखली की जा चुकी है।
सिर्फ इतना ही नहीं उनकी राजनैतिक हत्या की कोशिश भी दिखाई दे रही है क्योंकि मुलायम सिंह यादव के बाद यादवों में वहीं स्वीकार्य है और मुसलमानों का बड़ा हिस्सा उनके साथ है ।ऐसे में यह सवाल वाजिब है कि क्या प्रोफेसर रामगोपाल को यादव नेतृत्व की समाप्ति के लिए इस्तेमाल कर रही है बीजेपी ? और इस सवाल को बल देने के लिए रामगोपाल यादव की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ,आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से हुई मुलाकाते हैं जिनका सीधा संबंध इस प्रश्न से है ।आखिर सवाल तो उठा ही है और जवाब के तौर पर आया है मौन इसे क्या माना जाए मौन स्वीकृति तो नहीं ?

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